(जीवनानंद दास की कविता ‘बनलता सेन’ पढ़ने के बाद)
मैं उतर रहा हूँ पाताल लोक में
धरती को काटते हुए
घने अँधेरों में
सदियों से तुम्हें ढूँढते हुए
मैं उड़ रहा हूँ आकाश में ऊँचे और ऊँचे
पंछियों से आगे बादलों के पार तुमसे मिलने
मैं बह रहा हूँ नदियों में
बनकर पानी जाने कब से
कितनी तो खाक छानी प्यासे सिर्फ तुम्हारे लिए
मैं तिल-तिल जल रहा हूँ
आग के दरिया में चल रहा हूँ
तुम तक पहूँचने के लिए
अँधेरों के परदे चीरकर ब्रह्माण्ड के सबसे वीरान
सरकंडो के जंगल में
जैसे जीवनानंद दास को मिली
क्या वैसे ही मुझे भी मिलेगी
‘बनलता सेन’ ?