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सरलते / मुकुटधर पांडेय

गले मिलो ऐ सुभगा सरलते! कोमल-भाषिणी!
विजन विपिन, गिरि, गुहा नवल नीरद नद वासिनी

उदिता अति उज्वला उदारा गौरव सानी
परम पण्डिता, चारु प्रकृति की सुता सयानी।

सांसारिक सुख सार, रम्यता रज्जित रचना
आडम्बर अभिमान, बड़प्पन, विभव वासना

इनसे नाता तोड़ योगियों के सम प्रफुलित
पल्ली पथ पर भ्रमण सुन्दरी! करती तुम नित

सत्य सहोदरि! ऊहो कपट-छल-छिद्र विमुक्ता
परम प्रेम आधार, पुण्य पीयूष-प्रयुक्ता

अनायास आभास हास का पास तुम्हारे
यथा विपिन में फूल, गगन में उज्वल तारे

संशय तुम पर नहीं, तुम्हारा डर न किसी को
देती हो तुम सदा सहज परिचय सब ही को

सरले! रम्य स्वरूप तुम्हारा मुझको भाता
हृदय अमित अनुराग अनुक्षण जो उपजाता

पावन पर्ण कुटीर पंच सरिता कूल स्थित
यज्ञ वेदिका मध्य आर्य-ऋषि-वर गण वेष्टित

हवि सुगन्ध-युत प्रथम जन्य तेरा सुखकारी
यथा उल्लसित हुई शक्ति जन-मन-दुःख हारी

देख क्रौंच बध,! आदि कवि ने दुःख पाया
शिप्रा तट, बन बीच, अमर पद जो था गाया

अहा! वहीं से तुम रसिकों के चित्त चुराने
काव्य रूप में हुई प्रकट...सु अमृत बरसाने

पूजा कर तब रचे काव्य बहु सुर गुसाईं
रहा न लेश अधर्म, उदित रवि तम की नाई

प्रभा तुम्हारी हुई संचरित घट में उनके
हुए अतः वे गेह परम प्रतिभा सद्गुण के

प्रकृति सहचरि! करूँ तुम्हारी आशा कैसे
कभी दिखाना दया अहो! मुझ पर भी वैसे

सच कहता हूँ विफल अन्यथा जीवन मेरा
बस अशान्ति-भय-भ्रान्ति कलह कल्मष कुल घेरा