कविता-सी
बन गई निगोड़ी
पलभर की पहचान तुम्हारी ।
छन्द सरीखी गठन देह की
मननोहिनी पँक्ति-सी चितवन
अलंकार उभरे यौवन के
पढ़-पढ़ रीझ गया भावुक मन
भाषा थी
जानी-पहचानी
शैली थी अनजान तुम्हारी ।
अलकों के उद्धरण-चिन्ह में
तुम थीं नए शिल्प की रचना
सलज रूप की सरस त्रिवेणी
तुम अभिधा, लक्षणा, व्यंजना
बाँध गई
आलोचक-लोचन
अर्थ-भरी मुस्कान तुम्हारी ।