Last modified on 29 दिसम्बर 2018, at 05:15

सरिता के प्रति / पुरुषार्थवती देवी



सजनि! कहाँ से बही आ रहीं, चलीं किधर, किस ओर।
किसके लिये मची है हिय में, यह व्याकुलता घोर॥
अगणित हृदयों में छेड़ी है मूक व्यथा अनजान।
कितने ही सूनेपन का, कर डाला है अवसान॥
बिछा प्रकृति का अंचल सुन्दर तेरा स्वागत सार।
चूम-चूमकर वृक्ष झूमते ले-ले निज उपहार॥
सतत तुम्हार मन-रंजन को विहग करें कल्लोल।
तुम्हें हँसाने को ही निशिदिन बोलें मीठे बोल॥
बुझते जाते धीरे-धीरे नक्षत्रों के दीपक।
स्नेह-शून्य होकर मानो दिखलाते-से हैं पथ॥
नीरव कुंज हुए मुखरित सुन तव निनाद-गम्भीर।
मतवाले प्यासे पी तुझको होते अधिक अधीर॥
कितने निर्झर दिखा चुके हैं तुझको निज हिय-चीर।
किन्तु न भरता उनसे तेरा शोक उदधि गम्भीर॥
किसके हित सकरुण विहाग सम अविश्रान्त यह रोदन।
नीरस प्रान्तों में बखरेती क्यों अपना भीगा मन॥
क्या आगे बढ़कर पाओगे अपने चिर-आराध्य।
चलो, चलें, तब मिलकर सजनी मिटे हृदय की साध॥