सवेरा फिर नहीं होता...
छींके से दूध पीकर गई बिल्ली
आश्वस्त है
उसका दबा-छिपा अंदाज़
निकलता है घरों से
बाहर ईश्वर का काहिलपन सूंघता है
इंसानों की नंगी और बेमुरव्वत सोच
जो कि पत्थरों को दी गई
हमारी ज़बान है
जबकि पत्थरों को तो चुना था
नदियों ने, पहाड़ ने
अपने भरोसे के लिए