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सहगामिनी परछाइयां / योगेंद्र कृष्णा

तमाम उम्र हम
मृत्यु को जीवन से अलगाते रहे
तमाम हंसते-दमकते चेहरों
और उत्सवी नज़ारों से
उसकी परछाइयां मिटाते रहे

जैसे हम जीवन भर
गाते-नाचते उछलते-फलांगते
अपनी ही परछाइयों को लांघने का
उत्सव मनाते रहे...

हमने तुम्हारा नाम तक नहीं आने दिया
बहुत अपनों के होठों पर
जबकि तुम
उन होठों के आस-पास ही
मंडराती रहीं
एक दुःस्वप्न की तरह...

हर आदमी
अपने घर-आंगन से बहुत दूर और अलग
तुम्हारा ठौर-ठिकाना लगाता रहा
कि हवा में उड़ती
तुम्हारी राख, गंध और धुआं भी
अपनी बनाई हमारी दुनिया को
विरंजित-विरूपित न करे
तभी तो हमारा दाहिना हाथ
जहां एक तरफ़ जीवन को गाता रहा
बायां हाथ मौत को अलगाता रहा

छोटी-मोटी खुशियों और उत्सवों से हम
इतना अभिभूत रहे
कि तुम्हें सौंप दिया हमने
नाज़ियों, लादेनों और दंगाइयों के हाथों में
छोड़ आए तुम्हें
श्मशानों और कब्रिस्तानों
सीलन भरे तलघरों
अंधेरी सुरंगों और बीहड़ बियाबानों में

जहां से गुज़रते हुए
तुम्हारे बारे में सोचना भी मना हो गया
और इसलिए ही
यह जानने में तो
कई जीवन और कई युग बीत गए
कि तुम दरअसल मृत्यु कहां थी
तुम तो आजीवन हमारे साथ चलने वाली
हमारी ही परछाइयां थीं