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सहरा से पाती / रेशमा हिंगोरानी

मेहराब-ए-माह से,
हर तारा,
तीर बन के चला,
कोई नावक-ए-नीमकश,
तो कोई तन के चला !

फ़लक के वार सभी ठीक,
निशाने पे चले,
सिसकियाँ भरता रहा दिल,
उसी शजर के तले,

कि जिसकी सूखी शाख पर,
सजे हुए पत्ते,
रोज़ ही बैठते, खामोश,
निगाहें बाँधे...

कोई तो तीर,
बादलों के भी,
सीनों पे चलें,

कभी उनसे भी बरस जाएँ,
शबनमी बूँदें,

कभी तो अपना भी वीराना,

हो आबाद यहाँ !

31.07.93