अभी वह समय कहाँ
जो आने को है, आने को
वह लोकतंत्र की भट्टी में पक रहा है
उसे करोड़ों साँसों की
ऊर्जा मिल रही है
असंख्य भुजाओं का बल
वह पक रहा है वृक्ष पर अक्षत अमरूद
गल रहा है जैसे कच्चा लोहा
इस्पात बनने को
स्फटिक के रबों में झलकती उसकी शक्लें आर-पार
उनमें एक सुंदर भविष्य की भी है-
मुझे दिखार्इ्र पड़ती हैं
कारीगरों के उँगलियों में सृजन की लोच
कारखनों में उभरती हैं उसकी मरोड़ें
हर समय खुले हैं द्वार-
ख़ूबसूरत ऋतुओं के पहुँचने को मुझ तक
बेआहट
अचानक
बहुत सारे शिल्पी तराशते आत्मा का स्थापत्य
पत्थरों, शब्दों, रंगों ध्वनियों
नृत्य भंगिमाओ में-
ओह, वह अभी अध-सिकी रोटी है
भूखे श्रमिक को
क़र्ज़ से दबे किसान को
मेरी चप्पल के घिसे तले एक किनारे पर
कहते है भूगोल मेरे रिक्त होते चित का
दमन से आंतकित दलित-
आदिवासियों के जागते समूह
जिनकी पीठ पर पड़ते है अभावों के कोड़े
सहस्त्र फण
ऐसा बिच्छु-
जिसके डंग मारने से
पत्थर बनता है संखिया
रौंदे गऐ इंसान बे-अवाज
भभकती लौ को पचाते हुए चारों तरफ
वे अपने समय का ग्रेनाइट तराश रहे हैं
भावों की नई-नई महराबें
जड़ पत्थरों की मुखर धड़कनें सुनने को ही
मैं सुनसान घाटियों से गुज़रा
ओ कवि-
आहत, उदास होने में उतरने को
धरती में नसों की तरह
पौंड़ते रहो।
2007