मेरी माँ
डाला करती थी
गुदड़ी-खतल्या<ref>पुराने कपड़े का बिछौना</ref> और चद्दर
रोज सुबह समेट कर
घर की अलगनी पर
एक जोड़ी
गुदड़ी-खतल्या
पिता की दुकान में भी
एक ओर बँधी
अलगनी पर डला था
जिसे थके-मांदे पिता
देर रात उतार लिया करते थे
अपने बिस्तरे के लिए कभी-कभी
जब देनी होती
तैयार कर
चप्पल की अर्जेंट डिलीवरी
उसके ग्राहक को अल्लसुबह।
पिता ग्राहक से मिले
रुपयों में से कुछ
अलगनी पर डली
गुदड़ी की तह में रख
बचा लेते भविष्य के लिए
जब हाथ में काम नहीं होता
उस समय अलगनी ही आसरा थी
खुद रस्सी के सहारे बँधी
सहारा थी बुरे वक्त का
हमारे लिए।
शब्दार्थ
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