Last modified on 17 जून 2014, at 12:31

सहेलियाँ / हरीशचन्द्र पाण्डे

आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है
सहेलियाँ घर पर आएँगी

खाना होगा
गपशप होगी ख़ूब

चीज़ें तरतीब पा रही हैं
ओने-कोने साफ़ हो रहे हैं
ख़ुद की भी सँवार हो रही है
पिता तक पहुँचती आवाज़ में माँ से कह रही है
-- यही पहनकर न आ जाना बाहर

नोयडा से रुचि आई है
बंगलुरु से आयशा
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु
सरोजनी से दिव्या

शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर

... ग्यारह बजे आ जाना था उन्हें
बारह बज गए हैं
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए

वे शायद आ रही हैं
मोड़ की उस ओर जहाँ आँखें नहीं पहुँच रहीं
आवाज़ों का एक बवण्डर आ रहा है

हाँ, वे आ गई हैं
कॉल बैल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका
गेट का दरवाज़ा पीट रही हैं थप-थप-थप्प
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है

अधैर्य का एक पुलिन्दा मेरे गेट पर खड़ा है

वे गेट के भीतर क्या आ गई हैं
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक ऑर्केस्ट्रा बज रहा है
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से

वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं
धम्म-धम्म-धम्म सोफ़ों पर ऐसे गिर रही हैं
जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं

थोड़ा ठण्डा-वण्डा
थोड़ा चाय-बिस्कुट
थोड़े गिले - शिकवे...

और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं
एक ग्रुप फोटो के साथ...
वे कॉलेज के अन्तिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से
साड़ी कुछ माँ ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी
ऊपर कन्धे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर

एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले
कई बार गिरते-गिरते बची है
तीसरी ख़ुद को कम
देखने वालों को अधिक देख रही है
मरी-मरी जा रही है
भरी-भरी जा रही है

कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुम्भ लगा है
वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं
उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू
भीतर ही मँझधार हैं भीतर ही किनारा

वे उचक-उचक कर चहक रही हैं
चहक-चहक कर मन्द्र हो रही हैं

...अब उनकी बातों की ज़द में सहपाठिनें हैं
ये चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जी
और ये दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं

अभी यह कमरा कमरा नहीं
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है

...धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है
अब एक बार में एक स्वर मुखर है
अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लम्बी सुरंग में प्रवेश कर गई है
...चुप्प...
और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं
पखेरू चहकने लगे हैं
किसी ने मोती की लडिय़ाँ तोड़कर बिखेर दी हैं
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे
संसार के सारे कलुष धुल गए हों

भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं
ये सब सजो लेंगी इन पलों को
हम समो लेंगे

...समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं

अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं
इस छोर पर एक माँ कई बेटियों को विदा कर रही है
उस छोर पर कई माँएँ आँखें बिछाए खड़ी हैं

यहीं कहीं एक लड़का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा
एसिड की बोतल खरीद रहा है...