मिथ्या-परे न पाप है, साँच-रे नहि धर्म।
धरनी साँचो जो कहै, ताहि लागे कर्म॥1॥
धरनी साँचे जो भये, झूठे संग न जाँहि।
पंचामृत को परिहरैं, रुखा टूका खांहि॥2॥
जो जन जग में झूठ तजि, साँचे व्रत गहि लेय।
धरनी ताके चरण पर, शीश अपनो देय॥3॥
पर-निन्दा पर-धन तजै, पर-नारी नहि चाव।
साँच कहै सहजै रहै, धरनी वन्दे पाव॥4॥
मृषा कहै नहि जानिके, साँच न धरै छपाय।
धरनी सोजन निर्मला, कोइ देखो अजमाय॥5॥