हमारी ही आत्मा के किसी हिस्से की तलाश में जीवन गुज़र जाता है
प्रश्न यह कि तलाश आख़िर क्योंकर?
जब वैदिक संहिताएँ और धर्म हमें पूर्ण बताते हैं
भीतरी जगत् के अस्तित्व को भी स्वीकारते हैं तो फ़िर यह बाहर कौन?
अध्यात्म फिर यहाँ दखल करता है
और मन की वृत्तियों की उपज ही दृश्यमान जगत् को बताता है।
पर फ़िर प्रश्न कि ग़र यही सार्वभौमिक सत्य तो क्यों नहीं हर मन बुद्ध हो पाया?
बुद्धत्व कई-कई जीवन को एक में जी लेना है
संग होकर भी निर्लिप्त हो जाना है
जगत् में रहकर भी जगत् से परे
तो फ़िर निष्कर्ष कि
इसी चेतना के उच्च स्तर (बुद्धत्व) की प्राप्तयर्थ हम अलग-अलग राहों को चुनते हैं
सभी पुद्गल1 कहीं न कहीं अपूर्ण हैं और पूर्णत्व को प्राप्त कर स्थायित्व प्राप्त करना चाहते हैं
रसायन विज्ञान के तत्त्वों के S, P, D, F कोशों की ही तरह
वस्तुत: हम पूर्णत्व प्राप्ति के आकांक्षी वे राही हैं जो उसी की तलाश में अपने सम ऊर्जा स्तर पर सुकून महसूस करते हैं।
फ़िर यह वैषम्य क्यों?
अलग-अलग ऊर्जा स्तर पर होने के कारण ही संभवत:।
जाने कितने व्यक्तित्व, कितने ध्रुव, कितनी राजनीति परस्पर।
कहीं जीवन एक कारा और कहीं क्षणिक, 'पानी केरा बुदबुदा' की ही तर्ज़ पर...
पर सभी एक ही यात्रा पर...अनवरत!