झुक गये शिथिल दृग दोनों,
रूँध गई कंठ में वाणी।
अधरों का मधुर परस-रस,
कर सका न मुखिरत प्राणी।।२११।।
कोई न जिसे पढ़ पाया,
ऐसी रहस्य लेखा हो,
मेरी पीली पीड़ा में,
तुम एक अरूण रेखा हो।।२१२।।
भोले से भर्ू-भंगों में,
सुख की अभंग आशा थी।
उन मीठी मुस्कानों में,
जीवन की पिरभाषा थी।।२१३।।
मेरे प्राणों के पथ पर,
सबने अंगार बिखेरे।
कोई न मिला जीवन में,
पल भर जो प्यार बिखेरे।।२१४।।
जीवित जिसकी साँसों में,
मृत मानवता का स्वर हो।
तुम भी न जिसे छू पाये,
मेरा अस्ितत्व अमर हो।।२१५।।
वरूनी-मूलों में उलझे,
श्रमसीकर करूण-कथा के।
दृगद्वारों पर बाँधे हैं,
या वन्दनवार व्यथा के।।२१६।।
वह पहली रीझ दृगों की,
इत-िइतिहासों का अथ है।
रस-सिाद्धि प्राप्त करने में,
सौन्दयर्-साधना पथ है।।२१७।।
ये छिव-छलनाऐं लेकर,
सुधि की पतवारें कर में,
तिरती हैं स्वणर्-तरी सी,
मन के प्रशान्त सागर में।।२१८।।
स्वीकृति नकार बन बैठी,
किंिचत संशय हरने में।
क्या मिला तुम्हें बतलाआे,
विश्वासघात करने में।।२१९।।
कर सका कौन आकषर्ण,
संपूणर् प्रलुब्ध हृदय को,
कोई न शान्ित दे पाया,
मेरे विक्षुब्ध हृदय को।।२२०।।
सुन सको अगर तो सुन लो,
मेरे अन्दर की बातें।
कहता है कहीं किसी से,
कोई निज घर की बातें।।२२१।।
मुरझाये किंजल्को में,
किंिचत मकरंद न छोड़ा।
तुमने रिक्तम हाथों से,
सुमनों का हृदय निचोड़ा।।२२२।।
अब इन्हें कुचल भी डालो,
गज-गतिशाली पंकज से।
सम्भव है फिर जी जायें,
छूकर पावन पद-रज से।।२२३।।
जिसकी सुधि-सुधा छलकती,
रहती नित पलकों पर है।
उसके तन की छाया भी,
देखना आज दूभर है।।२२४।।
किरनों का आसव पीकर,
मद के झोकों में झूँमू।
बादल-दल के पीछे से,
चुपचाप चाँद को चँूमू।।२२५।।