साँझ आती,
साँझ की हिम-वात आती
और कहती—
’लौट चल,
घर लौट चल, पागल प्रवासी!’
कोट का कालर उठा मैं
बैठता कुछ और जम कर,
और थम कर
फिर वही हिम-वायु आती,
गले में सुकुमार शीतल कर छुलाती,
चिबुक छूती,
बाँह गहती
और कहती--
लौट चल,
घर लौट चल, पागल प्रवासी!’
मैं तुम्हारे संग चलता
वायु! मेरे भी
तुम्हारे ही तरह जो पंख होते!
पंख होते तो तुम्हारे संग चलता—
क्यों यहाँ निरुपाय मेरे श्वास जीवन-भार ढोते!
पहुँच घर चुपचाप,
धीरे पाँव धरता—पास जाता
और पीछे से सभी को चपल सीरे कर लगाता
चिबुक छूता,
बाँह गहता
और कहता—
’लौट आया,
लौट आया घर प्रवासी!’