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साँड़ तगादों के / भगवत दुबे

न्याय माँगने, गाँव हमारे, जब तेहसील गये,
न्यायालय, खलिहान, खेत,
घर गहने लील गये!

लिया कर्ज़,
सम्भावनाओं की फसल गयी बोई,
फलीभूत आशा के होते, लगा रोग कोई।
साँड़ तकादों के, लठैत
खेतों में ढील गये

गिरवी रखा
अँगूठा, करने बेटी का गौना,
छोड़ पढ़ाई हरवाही करने निकला छौना।
चिन्ताओं के बोझ, सुकोमल
काँधे छील गये

उर्वर की,
भूदान यज्ञ वाली ज़मीन पड़ती,
हरियाली शहरी आँखों में, सदा रही गड़ती।
फिर कछार कांक्रीट वनों में
हो तब्दील गये

नफ़रत से
तिमिराच्छादित दिखती है गली-गली,
उच्छृंखल धर्मान्धताओं की ऐसी हवा चली।
प्रेम और सद्भावनाओं के
बुझ कन्दील गये

कभी न
छँट पाया, जीवन से विपदा का कुहरा,
राजनीति का, जिन्हें बनाया गया सदा मुहरा।
दिल्ली, लोक कला दिखलाने
भूखे भील गये