साँसें ढोता हुआ।
आदमी की शक्ल में,
चमड़ा ओढ़े
हांड का एक ढेर
पड़ा है ठूठ के सहारे।
उसके हर कराह पर रिस रहा है
दम्भ का पस।
उसकी भूख अब भी निगल रही
न जाने कितनी पीढ़ियाँ।
शायद आदमी का सिफत यह भी है।
हाय! त्रिलोक विजेता।
ढह गयीं तेरी बुलंदियाँ।
कौन गाता है अब तेरा यशगान।
एक प्रश्न जो हर बार निरुत्तर ही रहा,
कब अफसोस करेगा तू अपनी भूख पर?