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साइकिल से चलते हुए / प्रमोद कुमार

साइकिल पर बैठते ही
आ मिलते हैं वे रास्ते
जहाँ मैं अपने से चल सका,
किसी चौराहे पर
नहीं होता दिशा-भ्रम,

पैडल मारते ही
साथ चलने लगते हैं पेड़
शीतल और छायादार
बातें करते
जो दूसरी सवारियों पर
गूँगे हो जाते हैं
वे बोल नहीं पाते बसों की भीड़ में
अटते नहीं टेम्पो की आधी सीट पर
दुपहियों में इतना तेल नहीं होता
कि ढो सकें इन्हें,

साइकिल में औरों को पछाड़ने की
तेज़ गति नहीं होती,
पर, इसे जहाँ चाहूँ वहाँ रोक सकता हूँ
ठीक तुम्हारे बगल में भी
केवल अपने आने की
चुप आवाज़ देते हुए,
मुझे लगता है
कि गति बढ़ाने के बजा़ए
मनचाही जगह पर उतरने
और कहीं मन भर रुकने की
स्वतंत्रता ज़्यादा ज़रूरी है

            अपने लिए भागते लोगों का
साइकिल से साथ नहीं दे सकता
            इस पर चलते हुओं के साथ
चल सकता हूँ किसी भी दूरी तक,

           ठस पर चेहरे को मलिन नहीं करता
वैभव के लोभ का भय,
चलते हुए पूछ लेता हूँ
सब्ज़ीवाली रामकली से इन दिनों के भाव
देख सकता हूँ
रमना की अँधेरी कोठरी में साफ़-साफ़,

इसमें नहीं है सर्वग्रासी, वैश्विक
गति का आतंकवाद,
बिछुड़ने के इतने दिनों के बाद भी
साइकिल पर मुझे देख
तुम
मिलने के लिए मुझे रोक लेना
यह आसान है तुम्हारे लिए भी ।