धरनी साकट जो रहै, निष्फल भौ अवतार।
कारज कियो न अपनो, जननी माटी भार॥1॥
दुखिया वैष्णव अति भला, सुखिया साकट नाँहि।
धरनी हरि-पुर तोलनो, या संग तलै न ताहि॥2॥
धरनी साकट बन्धुते, करो न आदर भाव।
करिये संगति साधु की, सन्तन शील स्वभाव॥3॥
धरनी कही पुकारिके, सुनो हमारो वैन।
साकट-हाथ न खाइये, संग न करिये शैन॥4॥
जाकी जोरु साकटी, भकत भयो है पुर्ख (पुर्ष)।
धरनी मता मिलै नहीं, एक पण्डित एक मुर्ख॥5॥
धरनी साकट सो कहिय, जीव-दया नहि जीय।
दयावन्त वैष्णव जनहिँ, विहँसि मिलैगा पीय॥6॥
धरनी साकट साधुसों, कबहीं बनै न संग।
संगति होय तो सुख नहीं, व्याधा अवर विहंग॥7॥