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साक्षी / आशमा कौल

मैं जड़ बनना चाहती हूँ
जड़ की तरह धैर्यवान
उसी की तरह अपनी ज़मीन
नहीं छोड़ना चाहती हूँ
चाहती हूँ मेरी ज़मीन पर
आशाओं के नए फूल खिलें
प्यार की कलियाँ महकें
सदभाव की बेलें पनपें
और मैं उस बसंत की साक्षी बनूँ ।

मैं किनारा होना चाहती हूँ
किनारे-सी संयमी
उसी की तरह अपनी शर्म
अपना पानी नहीं छोड़ना चाहती ।

चाहती हूँ मेरा पानी
शांत बहता रहे
निरंतर सागर से मिलने की
कहानी कहता रहे
और मैं उस मिलन की साक्षी बनूँ ।