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साक्षी / नवीन ठाकुर 'संधि'

आबै छै सालोॅ रोॅ अन्त में होली,
लैकेॅ रंग-अबीरोॅ रोॅ झोली।

निर्जीवोॅ के जीव मिलै छै,
दुश्मनी दोस्ती में पलै छै।
उच्च-नीच केरोॅ भेद मिटै छै,
खुशी में दुःख तकलीफ भूलै छै।
सब उमर बैसोॅ रोॅ खुलै छै बोली,
आबै छै सालोॅ रोॅ अन्त में होली।
पेड़-पौधा रोॅ रंग फिरै छै,
आक, मदार सब्भे रीझै छै।
धन्य छै है बसंत ऋतु,
बसंतोॅ रोॅ वयार सें फूलै छै टेसू।
जोड़ी-पारी रोॅ बनै छै टोली,
आबै छै सालोॅ रो अन्त में होली।
ननद आरो भौजाय रंग सें सजै छै,
देवर आरो भौजाय प्यार सें बझै छै।
होली, प्रेम केरोॅ गंगा बहाय छै,
मद मस्त होय केॅ सब्भेॅ नहाय छै।
सब्भै बजाय छै आपनोॅ-आपनोॅ ढोली।
आबै छै सालोॅ रोॅ अन्त में होली।
शास्त्रें एकरा बताय छै बखेड़ा,
प्रहलाद-होलिका रोॅ छेकैॅ अखेड़ा।
हिरणकशपु केरोॅ बहिन आरो प्रहलाद रोॅ छेकैॅ फुआ,
खुशी में गम, गम में खुशी लैकेॅ आवै छै पुआ।
साक्षी छै ‘‘संधि’’ होलिका दहन लेॅ बनलै देखो झोली
आबै छै सालोॅ रोॅ अन्त में होली।