रेती में
चार टूटी पर सँवारी हुई सीपियाँ,
एक ढहा हुआ
बालू का घरहरा
खारे पानी से मँजी हुई चैली का दंड
जिस पर
नारंगी के छिलके की
कतरन का फरहरा।
जहाँ-तहाँ बच्चों की पैरछाप की कैरियाँ।
खाली बोतलें दो अदद,
दफ्ती की तश्तरियाँ-फकत तीन;
कुछ टुकड़े रोटी के,
पनीर के, कुछ टमाटर के छिलके,
गुड़-मुड़ी काग़ज़
बालू में अध-दबी पन्नी
कुछ रुपहली, कुछ रंगीन,
जहाँ-तहाँ आस-पास
काग़ज़ के कुचले हुए गिलास।
बार-बार हम आते हैं
और रेती में लिख जाते हैं
अपने सुख-चैन की कहानी :
प्यार में दिये हुए वचन,
या निहोरे पर किये हुए सैर के इरादे।
बार-बार रेती पर
हँसियाँ, किलकारियाँ,
कुनबे, फुरसत,
उत्सव-जयन्तियाँ, सगाइयाँ।
दोस्तियाँ-यारियाँ, दुनियादारियाँ।
बार-बार रेती को
साँचे में भरते हैं;
रेती में अपना निजी
कचरा मिलाते हैं,
छाप छोड़ चले जाते हैं।
जिसे बार-बार
सागर धोता है,
आँधी माजती है,
लहरें लीपती हैं, सूरज सुखाता है,
समीरण सँवार कर
कहीं बह जाता है।
और फिर सागर रह जाता है।
तरंग-अंगुलियों पर गिनता
मानव के अद्भुत उद्यम, सनकी सपने,
स्वैरचारिणी चिन्ता।
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969