तुलसी की नर्म पत्ती पर
देवदूत के आँसुओं को
भाप बनाता सूरज
हमारे सौंदर्यबोध को
अपाहिज कर जाता है
मूल्यबोध भी ऐसे ही टूटते होंगे
पलेव में घुटने तक धँसे
दाँये हाथ हल की मूँठ थामे
बाँये से अनाज छींटते किसान के
वह हर कटौनी पर
बन्नी उधार से निबट कर
एक बढ़ावन ज़रूर रखता है गल्ले पर
जो कि उसे भूखा रखने की साज़िश में
शरीक होता है
उसे समझाना चाहिए
विखण्डित मूल्यों का जवाब
नकाबपोश देवता नहीं दे सकते ।