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साड़ी में तुम / सुनील श्रीवास्तव

साड़ी ख़ूब फबती है
तुम्हारी छरहरी देह पर
तुम्हें पसन्द भी तो है
साड़ी पहनना बहुत
चपलता तुम्हारी
कुछ और बढ़ जाती है साड़ी में

तुम्हें याद है वह पीली साड़ी
जिसे पहनकर तुम
बिल्कुल कनैल का फूल लगती थी
और वह घुँघरुओं वाली साड़ी
पहनकर जिसे तुम
चलती थी छम छम
और हम मज़ाक करते थे —
बैलगाड़ी आ रही है

सस्ती-महँगी
जो भी साड़ी ख़रीदी तुमने
उसे जल्द पहनने की ललक
चमक उठती थी तुम्हारे चेहरे पर
और वह ललक विभोर कर जाती थी
मुझे मुफ़लिसी में भी

माँ की रखी साड़ियाँ भी
तुमने पहनीं बड़े शौक से
और माँ दिखी मुझे
कहीं दूर आशीषें उलीचती

चपल क़दम
जब आती हो मेरे कमरे में
पहने कोई साड़ी पतली-सी
मैं अख़बार पढ़ रहा होता हूँ
या नोट कर रहा होता हूँ कुछ डायरी में
कहकर कोई बात चली जाती हो
तुम्हारी छवि देर तक मगर
ठहरी रहती है कमरे में

और उस दिन भी जब
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा था
कई-कई अन्धेरे
घेरे खड़े थे मुझे डुबोने को
क्लान्त मैं, डूब ही जाता
तभी तुम साड़ी में खिली नज़र आईं
हृदय पटल पर
अन्धेरे छिटकने लगे थे

कई कई रंगों की साड़ियों में यह तुम हो
कि कई-कई रोशनियाँ हैं
मेरे जीवन में ।