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सातमसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

षट्पदछन्द

1.
सुधा-सलिल सुरसरिततीर अति सुकृत महीतल
सुखद शरदऋतु समय समीर बहै छल शीतल।
गपसप करितहि छला परस्पर सब जन रीतल
नहिं बुझि सकला छनहिं जकाँ छनदा ता बीतल॥
पसरल लाली पूबदिस, ससरल तम पच्छिम गगन।
धयलक उडुगन मलिनदुति, कयलक कलरव विहगगन॥

2.
लछुमन पहिनहिं ऊठि कयल राम क पदवन्दन
मुनि कैं कयल प्रणाम जाय दुहु दशरथनन्दन।
प्रात-कृत्य सौं निपटि जानि पुनि उत्तम बेला
मुदित जनकपुर-गमन-हेतु सभ उद्यत भेला॥
अनुमति तटवासीक लय, चढ़ि नौकापर सहित मुनि।
सुरसरि उत्तर तीरपर, उतरि सींचि तनु नीर पुनि॥

3.
बजला कौशिक रामभद्र! देखू छवि देशक
भेल राज्य प्रारम्भ एतहि सौं जनक नरेशक।
की सुन्दर अछि मृदुल माँटि पुनि पथ अकलेशक
चलू आँखि मुनि कतहु जाउ नहिं अछि भय ठेसक॥
भव्य सव्य अपसव्य दुहु-पाँत सघन तरुवर क अछि।
छाया अनुखन पथिकजन-हेतु मानु सुख घर क अछि॥

4.
निकट निकट विश्राम भवन देखू अनूप अछि
लोटा डोरी डोल सहित पुनि सुजल कूप अछि।
की सुन्दर अछि अहा! व्यवस्था श्रीमिथिलेशक
ने अछि कोनहु जीवजन्तु में लेश कलेशक॥
चलू सकल निरखैत छवि, वत्स! राम लछुमन! अहाँ।
करू सफल निज नयन कैं, देखब ई अनतय कहाँ?॥

5.
सकल नगर सौं नगर गाम सौं अपर गाम धरि
जतय जतय अछि तीर्थ भूमि पुनि ताहि ठाम धरि।
बनल राजपथ लसित पार्श्वगत-तरुतड़ाग सौं
चलय सहज गति सकल पथिक पथवाम भाग सौं॥
यातायात क नियम ई, की उत्तम अहिठाम अछि।
देखु राम! विनुदाम ई, जल थल की अभिराम अछि॥

6.
बिच बिच पथ में नदी नहर पर बनल पूल अछि
देखू दुहु दिसि अति सुगन्ध मय विविध फूल अछि।
पद पद मिथिला भूमि सकल सुषमाक मूल अछि
जतहि प्रयोजन जथिक होए से ततहि तूल अछि॥
प्रात साँझ सिंचित सड़क, नहिं किंचित कूड़ा कतहु।
कतहु बिकाइत कन्दफल, दूध दही चूड़ा कतहु॥

7.
हाथी घोड़ा चढ़ल पालकी पर क्यौ रथ पर
क्यौ जाइत छथि क्यौ अबैत पैदल पुनि पथ पर।
की सुन्दर लय भार देखु भरिया सब जाइछ
निरखि छाँछ ओ माँछ ककर नहिं जी पनिछाइछ॥
भरल चंगेरा कोर धरि, पाकल केरा विविधविधि।
नव कूटल चूड़ा मधुर, बरफी पेरा विविधविधि॥

8.
कोस कोस पर बनल परम सुन्दर चौबट्टी
जहतय सकल विधि खाद्य पेय वस्तु क पुनि चट्टी
ततहि एक दिश कन्द मूल फल साग क सट्टी।
कोनहु वस्तु क देखि पड़य कौखन नहिं घट्टी॥
देखि राम सानुज मुदित, अति ललाम पथ गामछवि।
मुग्ध होए जन देखि पुनि, कोटि-कामसम रामछवि॥

9.
लछुमन बजला भाइ भाइ! बाधक छवि देखू
की सुन्दर अछि दृश्य जनक-जन-भाग्य परेखू।
अछि उपजल सब खेत भेलि सस्यक तर धरती
ने अछि कतहु दहार एक गब ने अछि जरती॥
परती नहिं पुनि बीत भरि, कतहु भीठ वा खात में।
नयन जाय लसकैत अछि, धान क हरिअर पात में॥

10.
की शोभा अछि! खेत खेत सस्यक गव सम्हरल
कतहु पड़ल अछि जीह कतहु तर तर अछि गम्हरल।
पूर्वाेत्तर क कमाइ मूल रहितहु परमोदक
लोभी वाभन जकाँ धान पौनहु हस्तोदक॥
चाहै चातकसंग पुनि, स्वाति क जल बखरा अपन।
नाचसंग रहि नीच जन, नहिं छोड़य नखरा अपन॥

11.
पवन वसात लगैत हँटल नभ सौं घन तहिना
बन्धु क विग्रह सौं सठैछ घरसौं धन जहिना।
साधु क हृदय समान विमल आकाश क शोभा
अछि प्रसन्न मन कृषक निरखि निज चासक शोभा॥
बीतल वृष्टिक समय अछि, तीतल धरतीतल क कन।
हीतल सुाद-सुगन्धमय, जीतल मृदु सीतल पवन॥

12.
निरखि हरितछवि हरित-हरित नहिं नयन थकै अछि
असिनी कतिकी सारि देखु पुनि कतहु पकै अछि।
“स्वर्ग क सुषमा अतुल” बात क्यौ व्यर्थ ढकै अछि
की? ओ समता एकर कदाचित पाबि सकै अछि?॥
सुमति शील गुन ज्ञान सौं, विधि जनु जनक नरेश कैं।
विरचल सुखशोभा सकल, समटि मानु अहि देश कैं॥

13.
स्वर्गहु सौं अति श्रेष्ठ पुरी माया कहबै अछि
त्यागि स्वर्ग में देह जनमि पुनि मरन पबै अछि।
जे मरैछ अहिठाम जन्तु से अमर बनै अछि
वेद बखानित बात विक्षिप्त के न जनै अछि?॥
सुरमुनि जन मिथिला क गुन, के नहिं कतय गबैत छथि।
देह अछैतहु जन जतय, नृप विदेह कहबैत छथि॥

14.
पथ चलैत ई रूप भूप जनकक यश गाबथि
जतय साँझ भय जाय ततहि पुनि राति विताबथि।
पुरजन सौं आतिथ्य विविध तीनू जन पाबथि
सबहिक प्रति सौजन्य अपन पुनि मुनि दरसाबथि॥
ई विधि पथ चलि चारि दिन, अयला नृपधानिक निकट।
निरखल निरजन सघनवन-बनल ततय आश्रम विकट॥

15.
पशुगन कीट पतंग मात्र नहिं जन्तु एक छल
लगहि सरोवर रम्य ततहु नहि मत्स्य भेक छल।
तृणमयकुटी पुरान टाट सब टूटि झरल छल
नारीक आकृति जकाँ शिला तहिठाम पड़ल छल॥
पूछल रघुकुलकमलरवि, कौसिक कैं विस्मय सहित।
गुरुवर! दिव्य स्थाई ई, की कारण अछि जनरहित॥

16.
सुनि रघुनाथ क वचन कहल मुनि सकल कहानी
तप करैत अहिठाम छला गौतम ऋषिज्ञानी।
जप तप विद्या योग मध्य अपनासन अपनहि
छला विश्व में एक बनल ई मानू गप नहिं॥
रूपवती पत्नी तनिक, नाम अहल्या विधिसुता।
उपमा हो, यदि एक थल, मिलथि कोटि जलनिधिसुता॥

17.
गौतम तप अति उग्र देखि वासव घबड़ैला
विघ्न करक बुधि आबि एतय कय बेरि पड़ैला।
सुरपति प्रेरित कते अप्सरा अहिठाँ ऐली
किन्तु अहल्या - रूप देखि भय मुग्ध पड़ैली॥
बजली मुनिपत्नी क सनि, नहिं त्रिभुवन में नारि क्यौ।
तैं नहिं नारि सकैत अछि, हुनक तपस्या टारि क्यौ॥

18.
तरुणतरणि- सन तेज- सहित गौतम मुनि मूरति
अनलशिखा सम विमल अहल्या देविक सूरति।
पाप- बुद्धि सौं जाय हुनक दिसि जे जन ताकत
दीपक उपर पतंग जकाँ सहसा से पाकत॥
तैं क्यौ त्रिभुवन में हुनक, धन बल बुद्धि घमण्ड सौं।
नहि तप टारि सकैत अछि, लोभ दान वा दण्ड सौं॥

19.
सोचल सुरपति- होय क्रोध सौं भंग तपस्या
से गौतम में किन्तु-हयब अछि कठिन समस्या।
तैयो हुनक परोक्ष जाय हुनका घर पैसी
हुनके रूप बनाय अहल्या लगभै वैसी॥
अबइत हुनका देखि पनि, रची चोरवत ढंग धु्रव।
करता दुहुपर क्रोध तौं, हयत तपस्या-भंग धु्रव॥

20.
अपर राति में छला महामुनि नित बहराइत
सौचक्रिया सौं निपटि समीप सरोवर जाइत।
अरुणोदय सौं पूर्व नियम सौं सविधि नहाइत
आबथि घर घुरि तदपि राति छल किछु रहि जाइत॥
ई बुझि सुरपति एक निसि, आश्रम सून्य निहारि कय।
अयला गुपचुप चोरवत, रूप गौतम क धारि कय॥

21.
किन्तु सती- भयभीत ठाढ़ रहला देहरि पर
अयला तावत भवन अचोकहि गौतम मुनिवर।
देखि अपन सनरूप जानि लम्पट कहि “धर धर
पकड़ चोर के थीक- “इन्द्र कपला सुनि थर थर॥
मुनिक क्रोधमय शब्द सुनि, अकचकाय कीथिक कतय।
झट उठि कपितहि कोंढ़ सौं, मुनिपत्नी ऐली ततय॥

22.
थर थर देखि कपैत मुनीश्वर प्रकटरोष भै
सहसा देलनि साप- “पाप! तों विगत कोष भै।
जाह तुरत प्रत्यक्ष अपन कर्मक फल पाबह
पापिनि! तों बनि शिलारूप निजजन्म बितावह”॥
गगनगिरा ता भेल- “हाँ! मुनि! नहिं कयल विचारि ई।
अछि इन्द्र क किछु दोष वरु, नहि दोषिनि छथि नारि ई॥

23.
थिका अमरगनभूप रूप अपने- सन धयने
जे बुझि अपने साप देल से नहिं छथि कयने।
“हो अपने कैं क्रोध ताहि सौं न्यून तपोबल”
कैलनि अछि तैं हेतु जाय अपने सौं ई छल॥
भेल देवगन- काज ई, मुक्त होथि पुनि पाप सौं।
करी कृपा जहि सौं छुटथि, सती अहल्या साप सौं”॥

24.
नभवानी सुनि मुनि क हृदय में छोभ समायल
कहलनि भै गतरोष तोष कहिनी ठण्ढायल
लय नव मेषक वृषण इन्द्र कैं दस्र लगावथु
सती अहीठाँ अहीरूप ता समय बिताबथु॥
हयत राम अवतार तौं, हुनक पुण्यपद परस सौं।
हयती सुखिनी दिव्यतनु, ततहि हमर पुनि दरस सौं॥

25.
ई कहि मुनि तप करक हेतु पुनि हिमगिरि गेला
मेष-वृषण नव पाबि स्वस्थ मन सुरपति भेल।
सती भेलि छथि शिला आइधरि ई विनुवारिक
करू परसि उद्धार साप सौं गौतम-नारि क॥
देल दयानिधि सुनि अपन, कर पारसमनि सौं परसि।
भेल अहल्या-दिव्य तनु, गेल सुमन नभ सौं बरसि॥

26.
सुधा तृषा आलस्य कष्ट वाधा सब टरलनि
“गाढ़ निन्द सौं उठल होथि” तहिना बुझि पड़लनि।
आगाँ देखल शम गोर सुन्दर दुइ मूरति
कमलनयन कर धनुषबान रतिपति सन सूरति॥
मन पड़लनि मुनिसाप ओ, कथित ताहि सौं उद्धरन।
पतिपद मन धय, जोड़िकर, पड़ली परमेशक चरन॥

27.
लगले लगली स्तुतिक संग निज कहय कहानी
नयन भरल आनन्द वारि मुख गदगद वानी।
“कृासिन्धु! जगदीश! दीनवत्सल! जनत्राता!
सकल-चराचर- भुवन- प्रभवथिति- विल-विधाता॥
अहाँ अनादि अनन्त ओ, अगुन रहित आकार छी।
तदपि भक्तहितहेतु पुनि, बनल सगुन साकार छी॥

28.
नाथ! नारि हम अबुधि अधम अवगुन-अधखानी
की अनुचित की उचित अहित हित नहिं किछु जानी।
सुनल नारिहितहेतु पतिव्रत-धर्म कहानी
छलहुँ ताहि में निरत किन्तु सुरपति अज्ञानी॥
ऐला पतिक परोक्ष में, हमर भवन कालक विवश
मुनि सहसा तत आबि पुनि, देल साप छल दुर्दिवस॥

29.
पतिसेवा में देव! दैववस त्रुटि किछु कैलहुँ
गेला नाथ नहाय ततय हम संग न धैलहुँ।
भेल तकर फल उपलरूप भेलहुँ पतिरोषैं
कतहु पबै छथि दण्ड साधुजन दुर्जनदोषैं॥
किन्तु हमर हितहेतु ओ, साप भेल वरदान सम।
विषभक्षण होइछ कतहु, विधिवश अम्मृतपान सम॥

30.
सापक फल भल भेल पूर्व-अर्जित अधमर्षन
जहिसौं भेल अलभ्य लाभ, परमेशक दर्शन।
दयादृष्टि अपनेक हमरिसनि के सौभागिनि।
रही बनल नित नाथ अपन पतिपद्- अनुरागिनि॥
देल जाय से सुमति प्रभु! पतिक अनुग्रह होय पुनि।
मिथ्या हमर कलंक कैं, दयावारिसौं धोय पुनि॥

31.
देथि दरस सकय ग्रहन संग राखथि बुझि दासी
नित अपने बनि रही, हमर मनमन्दिर वासी।
ई तजि माङब ईश! अहाँ सौं और दान की?
पति-सेवासौं नारिहेतु अछि धर्म आन की?॥
कहलनि ई विधि विनय सुनि, एवमस्तु रघुवंशमनि।
भेल सुमनवर्षन-सहित “धन्य अहल्या” गगनधुनि॥

32.
बिजुलीवत वृत्तान्त देश भरि पसरल छन में
ऐला गौतम जानि, अपन आश्रम उपवन में।
देखि अहल्या दौड़ि तुरत पतिपद लपटैली
पूर्ण चन्द्र कैं देखि चकोरी-सदृश जुड़ैली॥
निरखि अहल्या दिव्य तनु, गौतम मुनि मुद में मगन।
अनुपम दम्पति मिलन छवि, ‘जयजय’ ध्वनि गूँजल गगन॥

33.
ऋषि दम्पति पदपù परसि सानुज रघुनन्दन
कयलनि कौसिक- मुनिसमेत सविनय अभिवन्दन।
गौतम मुनि पुनि अर्ध्य मूल फल लय तहि ठामक
कयल सविधि आतिथ्य सकौसिक लछुमन रामक॥
ई विधि निश्छल उभय दल, कुशल परस्पर पूछि कहि।
परम मुदित मन सकलजन, दिवस वितौलनि ततय रहि॥

(सवैया) -

रामक आगम सौं तहिठाम
लता तरु गुल्म प्रसन्न फुलायल
कोकिल कीर कपोल कलापि
किकीदिव आदि विहंगम आयल।
कोक कुरंग तुरंग चमूरु समूरु
तपोवन में ललचायल
पूर्वहु सौं बढ़ि भेल सुशोभित
आबि ततय सब जन्तु जुड़ायल॥34॥

(दोहा) -

सती-अहल्या-उद्धरण-करण कथा सौं व्याप्त।
अम्बचरित में भेल ई, सातम सर्ग समाप्त॥