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सात / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

ओ सपेरा! सुन इधर! मुझको,
पकड़ कर एक विषधर नाग देना।

काढ़ता फन जो गगन के चाँद सा
और जो फुफकार करता श्वान सा
जीभ जिसकी लपलपाती बाण सी
आँख में हो ज्योति जली मशान की
एक ठोकर से जो तन कर पूँछ पर होता खड़ा
बाण के आगे जो सीना तान कर रहता अड़ा
श्वास से जिसके चतुर्दिक हिल सके
आग से जिसके चतुर्दिक जल सके
कह रहा हूँ, काल सा काला, जग

जलाने भर को ला तूँ आग देना
ओ सपेरा! सु इधर! मुखको,
देखना! उसको पकड़ कर चूम लूँगा
बाँध तमगा से गले में घूम लूँगा
सूर्य का रथ रोक लूँगा
तब न होगी साँझ या होगा सबेरा

खाक कर दूँगा जहाँ में कौन मेरा
मैं अकेला और मुझसे लोग होंगे
गरल जिनकी ज़िदगी के भोग होंगे
कह रहा हूँ, आज-कल में, देख लेना
अमिय के प्याले महा अभियोग होंगे

लग न जाएँ ये तुम्हें भी, इसलिए मत
बीन में भर मधुर-कोमल राग देना
ओ सपेरा! सु इधर! मुझको,

कौन कहता है कि मारो नाग को
कौन कहता है बुझा दो आग को
कौन कहता है प्रलय को रोक दो
कौन कहता है प्रलयंकारी को टोक दो

आज यूके वक्ष को मैं तोड़ दूँगा
बढ़ रहे जो हाथ उसको मोड दूँगा
मैं नहीं तो तुम अकेला क्या करोगे
आज मद से भरे प्याले फोड़ दूँगा

जी रहा घुट-घुट गरल पी-पी,
मान लूँगा मैं न मेरा भाग देना
ओ सपेरा! सुन इधर! मुझको