मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
सायर तरे हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा ॥
तेइ सत बिहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए ॥
सत साथी, सत कर संसारू । सत्त खेइ लेइ लावै पारू ॥
सत्त ताक सब आगू पाछू । जहँ तहँ मगर मच्छ औ काछू ॥
उठै लहरि जनु ठाढ पहारा । चढै सरग औ परै पतारा ॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाही । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं ॥
राजै सो सत हिरदै बाँधा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा ॥
खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर ।
मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर ॥1॥
खीर-समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू ॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा ॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू । पंथ भुलाइ बिनासै जोगू ॥
जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै ॥
दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिके केहि काजा ?॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटमार, चोर सँग सोई ॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे ॥
खीर-समुद सो नाँघा, आए समुद-दधि माँह ॥
जो है नेह क बाउर तिन्ह कहँ धूप न छाँह ॥2॥
दधि-समुद्र देखत तस दाधा । पेम क लुबुध दगध पै साधा ॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ । दधि जमाइ मथि काढे घीऊ ॥
दधि एक बूँद जाम सब खीरू । काँजी-बूँद बिनसि होइ नीरू ॥
साँस डाँडि ,मन मथनी गाढी । हिये चोट बिनु फूट न साढी ॥
जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी ॥
पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न अँबिरथा होई ॥
जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै ॥
दधि-समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार ?।
भावै पानी सिर परै, भावै परै अँगार ॥3॥
आए उदधि समुद्र अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा ॥
बिरह जो उपना ओहि तें गाढा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढा ॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी ॥
जग महँ कठिन खडग कै धारा । तेहि तें अधिक बिरह कै झारा ॥
अगम पंथ जो ऐस न होई । साथ किए पावै सब कोई ॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा ॥
तलफै तेल कराह जिमि इमि तलफै सब नीर ।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर बेधा समुद समीर ॥4॥
सुरा-समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद-छाता दिखरावा ॥
जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई ॥
पेम-सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठे महुआ कै छाहाँ ॥
गुरू के पास दाख-रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा ॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी । हाड जराइ दीन्ह सब काठी ॥
नैन-णीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया ॥
बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि परै रकत कै आँसू ॥
मुहमद मद जो पेम कर गए दीप तेहि साथ ।
सीस न देइ पतंग होइ तौ लगि लहै न खाध ॥5॥
पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धीरज, देखत डर खाए ॥
भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा ॥
उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं ॥
धरती लेइ सरग लहि बाढा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढा ॥
नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होइ ॥
फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै केहाँर क चाका ॥
भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं ॥
गै औसान सबन्ह कर देखि समुद कै बाढि ।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढि ॥6॥
हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला ॥
सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू ॥
एहि किलकिला समुद्र गँभीरू । जेहि गुन होइ सो पावै तीरू ॥
इहै समुद्र-पंथ मझधारा । खाँडे कै असि धार निनारा ॥
तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा ॥
खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई ॥
एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिय । गुरु सँग होइ पार तौ कीजिय ॥
मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास ।
परा सो गएअउ पतारहि, तरा सो गा कबिलास ॥7॥
राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धीरा ॥
ठाकुर जेहिक सूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई ॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधा ॥
पेम-समुद महँ बाँधा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा ॥
ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू ॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहिं आनि पेम-पथ लावा ॥
काठहि काह गाढ का ढीला ? । बूड न समुद, मगर नहिं लीला ॥
कान समुद धँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ ।
कोइ काहू न सँभारे, आपनि आपनि होइ ॥8॥
कोइ बोहित जस पौन उडाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं ॥
कोई जस भल धाव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू ॥
कोई जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भार बहु थाका ॥
कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी ॥
कोई खाहिं पौन कर झोला । कोइ करहिं पात अस डोला ॥
कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ ॥
राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा ॥
कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछ-राति ।
जाकर जस जस साजु हुत सो उतरा तेहि भाँति ॥9॥
सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीण्ह साहस, सिधि पाए ॥
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हिलास पुरइनि होइ छावा ॥
गा अँधियार, रैन-मसि छूटी । भा भिनसार किरिन-रवि फूटी ॥
`अस्ति अस्ति सब साथी बोले । अंध जो अहे नैन बिधि खोले ॥
कवँल बिगस तस बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं ॥
हँसहिं हंस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा ॥
जो अस आव साधि तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू ॥
भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ ।
घुन जो हियाव न कै सका , झर काठ तस खाइ ॥10॥
(1) सायर = सागर । कुरी = समूह । बेहर-बेहर = अलग-अलग ।
(2) मनुआ = मनुष्य या मन । पवारे = फेंकें । रूसे = विक्त हुए । मूसे = मूसे गए, ठगे गए ।
(3) दगध साधा = दाह सहने का अभ्यास कर लेता है । दाधा = जला । डाँडि =डाँडी, डोरि । अँबिरथा = वृथा, निष्फल । निसत = सत्य विहीन । भावै =चाहे ।
(4) झार ज्वाला, लपट । उपनी =उत्पन्न हुई । आगि कह डीठी = आग को क्या ध्यान में लाता है । सौंह = सामने । यह जो मलयगिरि = अर्थात् राजा ।
(5) छाता = पानी पर फैला फूल पत्तों का गुच्छा । सीस फिरै = सिर घूमता है । मन कसा = मन वश में किया । काठी = ईंधन । पोता =मिट्टी के लेप पर गीले कपडे का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने में बरतन के ऊपर दिया जाता है । सराग = सलाख, शलाका,सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं । खाध = खाद्य, भोग ।
(6)धरती लेइ = धरती से लेकर । माथे =मथने से । रंभ = घोर शब्द । औसान = होश-हवास ।
(7) साँकर = कठिन स्थिति । साँकर =सकरा, तंग ।
(8) सेंति = सेती, से । गाढ कठिन । ढीला =सुगम । कान = कर्ण, पतवार ।
(9) गरियारू = मट्टर, सुस्त । हरुआ = हलका । थाका = थक गया । झौला = झोंका, झकोरा । अगमन = आगे । पछ-राति = पिछली रात । हुत = था ।
(10) पुरइनि कमल का पत्ता। रैनमसि = रात की स्याही । `अस्ति अस्ति' = जिस सिंहल द्वीप के लिए इतना तप साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में `ईश्वर या परलोक है' किरीरा = क्रीडा । मुकताहल = मुक्ताफल । मनसा = मन में संकल्प किया । हियाव = जीवट , साहस ।