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साथी जो साथ नहीं / बृजेश नीरज

तुम इसे इत्तेफ़ाक कह लो
पर सच यही है कि
तुम साथ नहीं होते
जब शिराओं में जमने लगता है
समय
ज़मीन लाल हो कर बंजर हो जाती है
पीपल की जड़ें धरती से उखड़ कर
धँस जाती हैं दीवारों में
हिलने लगती है दीवार
दरक जाती है छत

तुम साथ नहीं हो
जब पतझड़ में झड़ गए
शब्दों की शाख से अर्थ के पत्ते

तुम साथ हो कर भी
साथ नहीं होते
हर उस कठिन दौर में
जब जीना, मरने से बदतर हो जाता है

आख़िर तुम क्यों साथ नहीं हो
मैं यह समझने की कोशिश में हूँ