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साथी न कोई मंज़िल / मजरूह सुल्तानपुरी

साथी न कोई मंज़िल
दिया है न कोई महफ़िल
चला मुझे लेके ऐ दिल
अकेला कहाँ

हमदम कोई मिले कहीं
ऐसे नसीब ही नहीं
बेदर्द है ज़मीं, दूर आसमाँ
साथी न कोई मंजिल...

गलियां हैं अपने देस की
फिर भी हैं जैसे अजनबी
किसको कहे कोई, अपना यहाँ
साथी न कोई मंजिल...

पत्थर के आशना मिले
पत्थर के देवता मिले
शीशे का दिल लिये, जाऊँ कहाँ
साथी न कोई मंजिल...