शूर मरै लरि एक दिन, सती जरै दिन एक।
धरनी भक्तजना रने, जन्म निबाहँे टेक॥1॥
लब्जा डर संसार की, संसारी को होय।
धरनी लज्जा लोक की, साधु करै जनि कोय॥2॥
साधु डरै एक रामसों, कै डर मानै साधु।
धरनी डर संसार की, साधु चढै अपराधु॥3॥
साधुकि महिमा को कहै, जानत है तेहि साधु।
धरनी दर्शन साधु को, है सकल अपराध॥4॥
धरनी धोखा दूर करु, धरु हृदया विश्वास।
साधु संगती पाइये, काज नहीं कैलाश॥5॥
धरनी जा हिय हरि नहीं, औ नहि हरि-जन-भाव।
सो नर जीवन नर्क में, मूये कौन चलाव॥6॥
जा घट साधु-प्रसाद नहि, नहि चरणामृत लागु।
धरनी यहि संसार में, ताकी बडी अभाग॥7॥
गंगा को जलआनि के, साधु-चरण ले धोय।
धरनी सो अचवन करै, सकल तीर्थ-फल होय॥8॥
धरनी उजल सोहावनो, जहाँ साधु दुई चारि।
बिना भक्ति भगवान् की, पट न लेखु उँजियार॥9॥
बदशाही की चाकरी, धरनी फूस निदान।
सार वन्दगी साधु की, पावै पद निर्वाण॥10॥
साधु संगती से जरो, सकल विषय-विश्वास।
निर्भय चरण पसारिके, सोये धरनी दास॥11॥
धरनी कुल निर्मल भयो, जा कुल उपजै भक्त।
बड़ ही कुल अकलंकिया, देखु जहाँलो जक्त॥12॥
धरनी शरनी ताहि की, राम-भक्त जो होय।
बार बार शिर नाइये, चरण पीजिये धोय॥13॥
बेडा संगति साधु की, चढ़ो सहित परिवार।
धरनी हरि गुण गावते, उतरो भव-जल पार॥14॥
चारि वरन कुल वड़ कहै, चर्म-दृष्टि संसार।
धरनी धनि वैष्णवा जना, धोबि धिमर धरकार॥15॥
हरि सुमिरन हृदया बसै, हरि भक्तजसों प्रेम।
धरनी ताके जानिये, नित्यहिं कुशल सुछेम॥16॥