साध सुध की बीन!
बाँध अब स्वर के अभंगी तार;
धुन उठे, घहरे, झरे झंकार
परस की पोरों पुलक की आँख
खोल, रे दृगहीन!
मीड़-पीड़ित मूर्च्छनाहत प्राण
लक्ष्यगत हों, ज्यों बरुण के बाण;
स्वरस-संध्वनि में विवादी माख
हो सहज लयलीन।
मोह की मिहिका पिये, निस्पंद,
रात-भर बेसुध रहे जो बंद,
सरस परस लहे खुलें वे पाँख
रश्मिधर, स्वाधीन!