Last modified on 20 दिसम्बर 2014, at 17:18

साबुन / रियाज़ लतीफ़

दो आलम की सय्याही में
गुज़रे हैं निकहत निकहत
मेरे लब
उजले पिस्तानों से
ज़ेर-ए-नाफ़
घनी रातों के ऐवानें से
भीगी भीगी खाल की अंधी रौनक़ से वाक़िफ़ हूँ मैं भी
जिस्मों से सैलाबी पेच-ओ-ख़म से घिस कर
लम्हा लम्हा जान गँवाई है मैं ने भी
झाग बना कर हस्ती अपनी
मिट्टी के सपने धोता हूँ
तेरे ख़लियों के हल्क़ों में
एक शफ़्फाक़ फ़लक बोता हूँ
तुंद-मसामों की आँखों में
अपने चेहरे को खोता हूँ