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सामूहिक नियति / गीता शर्मा बित्थारिया

कुछ सहती है
कुछ कहती है
कुछ सुनती है
कुछ रोती हैं
कुछ मुंह बिसोरती है
कुछ हंसती है
कि जो
सहा गया
कहा गया
सुनाया गया
क्या संभव है
इतना दुख दर्द दमन और अपमान ?

फिर वो सहती हैं
फिर वो कहती हैं
फिर वो रोती हैं
फिर सब सुनती हैं
बिना मुंह बिसोरे
बिना हंसे
शामिल हो जाती हैं
स्त्री नियति के दुख में
क्योंकि उन्हें पता है
रूप अलग है
भाषा पृथक है
पर
अवश्यंभावी है कदाचित
हां संभव है
इतना दुख दर्द दमन और अपमान
जो मिलता है एक स्त्री को
सिर्फ एक स्त्री होने के कारण