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साम्प्रदायिक विष / महेन्द्र भटनागर


आज नूतन शक्ति का संचार !
नस-नस में फड़कता जोश
दुर्दम मानवी दृढ़ !
होश की करवट
कि देखा सामने मरघट,
पड़ीं लाशें मनुज की,
चीत्कारें !

ध्वस्त गृह अट्टालिकाएँ,
धूल उड़ती,
नाश की चलती हवाएँ,
ख़ून के सागर
धरा पर बह रहे,
ज्वालामुखी लावा उगलते,
हो रहा है मृत प्रलय
ताण्डव प्रखर,

गिरते धरा पर शीश अगणित
वार से होकर पराजित,
अवनि लुण्ठित, चरण मर्दित,

थूक ठोकर से मसलता
आदमी जब आदमी को
तब जगे हैं प्राण !
उन्मद वेग ज्वाला
सर्व भक्षक क्रूर लपटें
आ गयीं जब, खा गयीं जब,
युग-युगों की शक्ति,
संचित धन, मनुजता !

जो कभी सोचा न हो मन में
कभी देखा नहीं हो स्वप्न तक में,
क्रूर बर्बरता, हिला दे दिल !
जगत इतिहास के
सौ-वर्ष तक के युद्ध
फीके बालकों के खेल
बन कर रह गये, उपहास !
होगा, सच, नहीं विश्वास !
हिंसा का, मरण अतिरेक !
घिस गया चंगेज़ !
फीका पड़ गया तैमूर !
औ’ औरंगज़ेबी ज़ुल्म ढह
जलियानवाला बाग !
हिंसक आततायी
लोमहर्षक, क्रूर,
फैली रोशनी के, सामने
‘सरवर गुलामी’1 ज़ुल्म !
[1. पूर्वी बंगाल (पाकिस्तान) का तत्कालीन साम्प्रदायिक नेता।]