कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक
रक्तिम युद्ध-भूमि से लौट न जो आए,
नहीं मरे वे वहाँ, बने मानो सारस
उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए ।
उन्हीं दिनों से, बीते हुए ज़माने से
उड़े गगन में, गूँजें उनकी आवाज़ें
क्या न इसी कारण ही अक्सर चुप रहकर
भारी मन से हम नीले नभ को ताकें ।
आज, शाम के घिरते हुए अन्धेरे में
देखूँ, धुन्ध-कुहासे में सारस उड़ते,
अपना दल-सा एक बनाए उसी तरह
जैसे जब थे मानव, भू पर डग भरते ।
वे उड़ते हैं, लम्बी मंज़िल तय करते
और पुकारें जैसे नाम किसी के वे,
शायद इनकी ही पुकार से इसीलिए
शब्द हमारी भाषा के मिलते-जुलते ?
उड़ते जाते हैं सारस-दल थके-थके
धुन्ध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है,
उस तिकोण में उनके ज़रा जगह ख़ाली
वह तो मेरे लिए, मुझे यह लगता है ।
वह दिन आएगा, मैं सारस-दल के संग
हलके नील अन्धेरे में उड़ जाऊँगा,
उन्हें सारसों की ही भाँति पुकारूँगा
छोड़ जिन्हें मैं पृथ्वी पर जाऊँगा ।
रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु