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सारे सुखन तुम्हारे / प्रतिभा कटियार

लो फूल सारे तुम रख लो अब से । मुझे नहीं चाहिए, काँटे ठीक हैं मेरे लिए । काँटों के मुरझाने का कोई ख़तरा नहीं होता। न ही इनकी परवरिश करनी पड़ती है । सुख तुम पर खूब खिलते हैं । ये तुम्हारे लिए ही बने लगते हैं सारे के सारे। सच्ची, इनका-तुम्हारा नाता पुराना है । ये भी तुम्हारे हुए । मैं क्या करूँगी इनका । मेरे लिए इनकी कोई अहमियत नहीं । बेज़ार हूँ मैं सुखों से । इनके होने न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है मुझे । बल्कि कभी कोई सुख ग़लती से टकरा जाता है तो उसके टूटने का भय खाए रहता है हरदम । चाँद-वाँद, चाँदनी-वाँदनी भी नहीं चाहिए मुझे, लो सारी चाँद-रातें तुम रख लो। मैं अमावस की रातों पर अपने ग़म का चाँद उगा लूँगी ।

बरसती हुई अमावस की रातों का स्वाद भाता है मुझे । कभी चखा है तुमने ?
नहीं...नहीं.... ये स्वाद तुम्हारे लिए नहीं है । धरती भी तुम रख लो, आसमान भी । मेरे लिए तो क्षितिज ही काफ़ी है। अनंत के छोर पर दिखता एक ख़्वाब-सा क्षितिज ।

देह भी तुम ही धरो प्रिय निर्मल, कोमल, सुंदर देह सजाओ, सँवारो इसे, मेरे लिए तो मेरी रूह ही भली ।

जल्दी करो, समेटो अपनी चीज़ें किसी के बूटों की आवाज़ आ रही है सिपाही होगा शायद या फिर कोई चोर-उचक्का भी हो सकता है । माँगने लगेगा वो भी हिस्सा या फिर छीन ही लेगा वो तो सारी चीज़ें । तुम जल्दी से चले जाओ सब लेकर यहाँ से मुझे कुछ नहीं होगा

मेरी चीज़ों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी किसी को, ज़रा भी नहीं । मैं आज़ाद हूँ अब दुनिया के हर ख़ौफ़ से ।