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सार्थकता / महेन्द्र भटनागर

आओ
दीवारों के घेरों
परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से
ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को
स्वर-सरगम में बदलें !

मुरझाये रोते चेहरों को
मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर
छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें
घनघोर अंधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,

त्रासों और अभावों की
निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें
लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !

घर-घर जाकर
सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,

कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !