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सावन की बूँदें / शीला तिवारी

कितनी अभिलाषाएं लिए,
झरती सावन की बूँदें
गर्जना करता बादल उमड़-घुमड़
सारे संताप को चुनौती दे कर
तृष्णा, प्यास से व्याकुल तड़प रही
उष्णता घनघोर, तपन-छटपटाहट में अवनि
छाती पर बोझ लिए हजारों जीना क्या जीना
दूर करो ,मधुर रस अब पीना
धरती जो दरारों से पटी है,
छाती पर सूखे खर-पतवार लिए खड़ी है
चल पड़ा मेघ बिजली की झनकार लिए
धरती की उष्मा-संताप हरण को
फुहारों में सरस हो जाओ
विरह के बाद सुखद मिलन है
बरस पड़ी बूँदे झमझम, प्रकृति उत्सव में मगन।
मैं हथेलियों पर बूँदों को लेती, टप-टप कर गिरते
जमाना चाहती अपने हस्तरेखा पर
खुशनुमा एहसास को संजोते
प्रणय निवेदन के दरख़्त जो मुरझाए हैं
जीवंत हो उठा सावन के घन से
नव उल्लास, उछाह में झूम उठे
मौज की लकीरे, नव कोंपल, नव आशाएं
सावन के मनुहारी गीतों में
हँसते, खिलखिलाते जीवन की परिभाषाएं
हाथों की मेंहदी रंग में चढ़ा प्रेम
हरी चूड़ियो की छनछन, जीवंत हो रहा जीवन
सावन की झकोरों में बह गए हर शमन
हरीतिमा से सुसज्जित धरनी आँचल
कल-कल नदियाँ, सरिता निर्मल
दादुर के टर्र-टर्र, मोरनी के नृत्य अनुपम
प्रेम प्रलाप का आमंत्रण
अहा ! किल्लोल करता मन
सावन जो आया।