राग बिलावल
सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥
कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति, इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥
भावार्थ :-- माता यशोदा (श्याम को) चलना सिखा रही हैं । जब वे लड़खड़ाने लगते हैं,तब उसके हाथों में अपना हाथ पकड़ा देती हैं, डगमगाते चरण वे पृथ्वी पर रखते हैं । कभी उनका सुन्दर मुख देखकर माता का हृदय आनन्द से पूर्ण हो जाता है वे बलैया लेने लगती हैं । कभी कुल-देवता मनाने लगती हैं कि `मेरा कुँवर कन्हाई चिरजीवी हो ।' कभी पुकार कर बलराम को बुलाती हैं (और कहती हैं-) `दोनों भाई इसी आँगन में मेरे सामने खेलो । `सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी की यह लीला है की श्रीनन्दराय जी का प्रताप और वैभव अत्यन्त बढ़ गया है ।