Last modified on 17 जून 2010, at 12:13

सिज्दा / परवीन शाकिर

जिस्म की चाह में
आतिश-ए-लम्स<ref>स्पर्श की आग</ref> से जब रग-ए-जाँ<ref>वह प्रमुख नस जो दिल तक जाती है</ref> चटख़ने लगे
और मन-ओ-तू<ref>मैं और तू</ref> के माबैन<ref>बीच में</ref>
इक बाल से बढ़के बारीक लम्हा भी आख़िर बिखरने लगे
उस समय
सिर्फ़ मेरी निगाहों का दुख देखकर
हर तलब की ज़बाँ काट देना
तुम्हारी बड़ाई है
और इस बड़ाई के आगे
मेरे लब अभी तक तुम्हारे नुकूश-ए-क़दम<ref>पदचिन्ह</ref> पर झुके हैं !


शब्दार्थ
<references/>