यह भोईपुरा का कोना है ठीक तालाब से लगा-सटा
ढलान के पास ही वह पीपल जिसकी कई एक
उभरी जड़ों मे उस एक से बँधा है
कद्दावर घोड़ा धूसर चपल-चुस्त
वृक्ष के तने से हिलगे उस मंदिर में
कैद है कोई देवी निष्पंद
सिर्फ एक गिलहरी है जो घूमती रहती है निर्द्वन्द्व
मंदिर के ऐन सामने पकड़ के लायी जाती हैं मछलियाँ
उनके गलफड़े शक्ति भर खुल-खुलकर
समेट लेना चाहते हैं जीवन हवा
उनकी कातर आँखों से झाँकती है अंतिम विनय और
खुलते बंद होते मुँहों से क्षीण गुहार
यह भोर का समय है जबकि घोड़े की पीठ पर
बुना जाता है नायलान का जाल
तीन व्यक्ति हैं व्यस्त झुटपुटे से
घोड़े की अपनी समझ है,
नजर बजाये वह चबा लेने की जुगत में जाल
झिड़का जाता है बार-बार
फिर भी घोड़े की अपनी डेढ़ टांग
हारथक एक व्यक्ति उठा लाता है टाट का खली थैला
कसकर बाँध दिया जाता है जो घोड़े के मुँह पर
हँसते हैं ठहाका मार तीनों और जुट जाते हैं फिर
घोड़ा डूब जाता है किसी सोच में और यह क्या?
वह मारता है बिजली सी तेज दुलत्ती
जाल अब टापों के नीचे
सुबह की किरणों में रह-रहकर चमक उठती है नाल
घोड़ा जैसे सनक में करता है जाल तार-तार
सहसा उनमें से एक उठा लिये कोई भयानक विचार
घोड़े की पीठ पर उमचती बेते थीं और वह
बेंत की कठिनतम भाषा से परे
अपनी आँखों में भर रहा था तालाब
जल में हलचल थी
मछलियाँ अब घोड़े की आँखों में थीं और जाल-ध्वस्त
(वे तीनों अब चुप थे जैसे देवी)
सिर्फ गिलहरी थी जो घोड़े के घावों के आस-पास घूम रही थी!