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सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं / संध्या गुप्ता

बरसों बाद
वह भरी दोपहरी में एक दिन मेरे घर आया

इसे संभालो - ये कविताएँ हैं तुम्हारी

मैं हार गया !!
उसने दरवाज़े के नीचे पुराने दिनों की तरह
चप्पल छोड़े

ये क़िताबें रख लो
यह पेन भी
अब अपने दुःख की तरह संभाले नहीं संभलता
यह सब

यह आदमी ही है
जो संजोकर सिर्फ़ स्मृतियाँ ही नहीं रखता !