सिंन्धु के तट पर नहीं मेरा बसेरा
व्योम की सारी परिधि मेरा वतन है
‘सोन पाँखी’ हूँ, उड़ाने भर रहा हूँ
गगन के विस्तार-सा ही सृष्ट मन है
ओ सुनामी! बाल भी बाँका न मेरा कर सकोगी
तटों पर खाकर पछाडे़ं, हाथ मल-मल कंर थकोगी
लोग थूकेंगे तुम्हीं पर देख कर तांडव तुम्हारा
इधर बजता ही रहेगा विजय का डंका-नगाड़ा
द्वेष के जिस गर्भ से निकली,
उसी में लौट जाओ
व्यर्थ मर्कट-कूद को त्यागो
गुफा में जा समाओ
ओ सुनामी,
लौट जाओ, लौट जाओ
मुड़ो आगे मत बढ़ाओ
लौट जाओ, लौट जाओ