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सीता / अर्जुन देव चारण

वाल्मीकि रामायण के ‘युद्ध कांड’ के 118 वें सर्ग का आरंभ ही राम के क्रोध से प्रकट होने से हुआ और उनके सामने खड़ी है सिर झुकाए सीता।
तां तु पार्श्वस्थितां प्रह्बां रामः सम्प्रेक्ष्य मैथिलीम्‌।
हृदयान्तर्गतक्रोधो व्याहर्तुमुपचकमे ॥ 1 ॥
सीता के लिए राम का यह रूप तो सर्वथा नवीन था। इस राम को तो शायद वह पहचानती ही नहीं थी।
पश्यतस्तां तु रामस्य भूयः क्रोधो व्यवर्धत।
प्रभूताज्यावसिक्तस्य पावकस्येव दीप्यतः ॥11॥
उस समय सीता को देखकर राम का क्रोध उसी भांति प्रकट हुआ जैसे घी डालने से अग्नि धधक उठती है।
विदिताश्चास्तु ते भद्रे योयं रणपरिश्रमः।
स तीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थ मया कृतः॥15॥
हे भद्रे! तुम्हे यह जान लेना चाहिए कि इन इष्ट मित्रों के बल और प्राक्रम से मैंने युद्ध जीता है। पर यह परिश्रम मैंने तुम्हारे लिए नहीं किया है।
रक्षसातु मया वृतमपवादं च सर्वशः।
प्रख्यातस्यात्मर्वशस्य न्यंग च परिरक्षित॥16॥
रावण को मार कर मैंने मेरे चरित्र की रक्षा की है और स्वयं को बदनामी से बचाया है, मैंने इससे अपने विख्यात वंश के अपयश को धो डाला है।
राम सीता को साफ-साफ शब्दों में कह देते हैं कि उन्हें सीता के चरित्र पर संदेह है इसलिए सीता की मर्जी हो वह वहां जाए, उसके लिए दसों दिशाएं मुक्त है। राम को अपने बड़े कुल का अभिमान है-
इति प्रत्याहृतं भद्रे मयैतत्‍ कृतबुद्धिना।
लक्ष्मणै भरते वा त्वं कुरू बुद्धि यथा सुखम् ॥22॥
सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्र विभीषणे।
निवेशम नमः सते यथा वा सुखमात्मनः ॥23||
हे भद्रे! मैंने निश्चय कर तुम्हे यह यहा है। लक्ष्मण, भरत, वानर राज सुग्रीव या राक्षसों के राजा विभीषण में से जिसके यहां तुम रहना चाहो या जहां तुम्हें सुख मिलने की आशा हो वहां तुम जा सकती हो।
सीता की अग्नि-परीक्षा का कारण राम के ये शब्द ही थे। उस समय सीता के मन का क्या हाल हुआ होगा, उसे शब्दों में सहेजते हुए लिखी है यह कविता-

वह क्षण
जहां पहुंच बिखर गया
मर्यादा का पूतला
तुमने अपनी आंखों में
कैसे रोका।

हंसे होंगे
दस सीस कटे हुए
स्थिर हो गया होगा समुद्र
उछाले मारता
हवा ने समेट लिए होंगे
अपने पंख
पृथ्वी भूल गई होगी
अपनी गति
झिझक कर खड़ा हो गया होगा
शेषनाग,
कंपित हुए होंगे
दसों दिशाओं के दिगपाल
मंत्र रह गए होंगे
ऋषियों के मुंह में
यज्ञ में दी गई होंगी
आहूती आंसुओं की
पर किसी के
कुछ भी किए
नहीं रुके
वे अमर्यादित शब्द
समय का यह क्रूर मजाक
तुम्हें
निर्वस्त्र कर निकल गया।

उस पल
तुमने किसे देख
तोड़ी अपनी मरजाद
दृष्टि को संभाल
देखा उस पराए मर्द को
जो
खुद को राम कहता था।

धर्म का यह युद्ध
तुम्हारी लज्जा-पताका को सौंद
गुंजाते हुए ढोल
मांग रहा था
तुम्हारे सतीत्व का साक्ष्य
खड़ा था
हृदय को भाले से बींध।

हे राम रसी!
राम-राम जपते हुए
तुमने देखा
जिसके सामने
वह तो स्वयं ही था
पौरुष विहीन राम।

आंख झपकने के अंतराल में
जान लिया तुमने
सृष्टि का आदिम भेद,
इस धरती पर जिंदा है
सिर्फ दो वर्ग
विजित-पराजित
पुरुष-स्त्री।

पहचान गई तुम
युद्ध नहीं लड़े जाते हैं
सिर्फ युद्ध-क्षेत्र में
वह
सदैव आंगन से आरंभ होता है
और
दरवाजे तक
पहुंचते-पहुंचते
हो जाता है संपूर्ण।

पहचान गई तुम
मर्द कभी नहीं हारता
पराजित होती हैं सदैव नारियां,
रावण के मरने के बाद भी
वह जिंदा रहता है
दूसरे वेश में,

पहचान गई तुम
कि श्राप देने के बाद
आचमित जल
हमेशा
धरती की गोद में
क्यों डाला जाता है
और
क्यों दिखाई देती है
आकाश की तरफ उठती
वरदानी हथेलियां।

तुम्हें मालूम चला
पहली बार
कि पति के अपरबली होने पर भी
औरत के हिस्से
नहीं आता
बल का
राई जितना भी अंश
हे बलक्षीण वियोगिनी।

तुम्हारे सामने
बिखर गया
स्वयंवर का भ्रम
वह महल
वह दरबार
सिंहासन
मुकट
धनुष
सभी की मैली हो गई चमक,
सिर्फ सात शब्द
तुम्हारे भरोसे की
सात मंजिल हवेली को
ध्वस्त कर गूंजने लगे,
इन्हीं सुरों के
जोड़ खोलने
किए हुए तुम्हारे सभी जतन
किसी सारंगी
नहीं सधे... नहीं सधे... नहीं सधे।

अगनसिनान ही तो
करती रही थी तुम
उस हरी-भरी बगिया में
नित्य सांझ-सवेरे
तुम्हारी पवित्रता ही
था तुम्हारा शृंगार
किंतु
देने तुम्हारी गवाही
कोई नहीं आया
सभा के बीच,
नहीं मांगा किसी ने
तुम्हारे पति से
परवाना
उसके पवित्र होने का।
मर्दों के कान
कब सुनते
अपनी मां-बहन-बेटी की पीड़
खड़ी थी
खड़ी रही
चारों तरफ
नाकारों की भीड़,

तुम्हारी अमर आस
हुई धराशाही
किंतु देह में
सृष्टी का केंद्र ढूंढ़ने वाली
आंखें
विदेही का
खंड-खंड बिखरना
कैसे देखती।

अपने ही हाथों
बनाई होगी
हवेली काठ की,
निमंत्रित किया होगा स्वयं ही
अग्नि-देव को,
धीरे-धीरे उतरी
जगमग जोत
काली कोठरी,

बेटी की रक्षा करने
आई मां
ताना होगा अपना आंचल
तुम्हारे मना करने पर
छोड़ती निश्वास
कर ली होंगी आंखें बंद,
तुमने धैर्य धारण कर
करते हुए ध्यान पति का
बैठ गई स्थिर
लपटें
लपटें
सिर्फ लहराती लपटें चारों ओर।

पुरुष पराया
यदि छू ले
तुम्हारी देह
जीवन की डोर
हो जाए भस्म,
जानता था
यज्ञ को जाग्रत करने वाला
साक्षात अगन-देव
देवपुरुष!

तुम्हारी देह-मंदिर
लगा कर परिक्रमा
खोजे
खुद के जीवन के साक्ष्य
नजदीक आकर
रखा सिर पर रखा हाथ
दिया आशीर्वाद
पहनाई
मंत्रों की चुनर,
जैसे
मामा ने भरा हो माहेरा।

निभाकर अपना धर्म
मनाते हुए
तुम्हारे सुहाग के
उसने मांगी तुमसे विदा,
विदा करने मामा को
तुम आई
लपटों के बाहर
सभा ने की जय-जयकार
तुम्हें स्वीकारने
वह आया आगे
पति तुम्हारा
जिसको सभी राम कहते थे,

तुम कैसे कहती
किस से कहती
कि क्या-क्या
जल गया है
और
क्या-क्या रह गया शेष।

अनुवाद : नीरज दइया