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सीपियाँ सब बह गईं / ऋषभ देव शर्मा

एक निर्मम लहर आई
सीपियाँ सब बह गईं

सोचता था मैं तुम्हारे
चरण का आलता बनूँ
मेहँदी बन या तुम्हारी
तलहथी में मैं रचूँ

कामनाएँ किन्तु सारी
अनकही ही रह गईं

जब लिखा था नाम तेरा
उस कुएँ के पाट पर
खोजती मुझको फिरी थी
तुम नदी के घाट पर

‘बचपना था’ हाय! चलते
वक्त तुम क्या कह गईं

तब शिवालय में तुम्हीं ने
तो पुकारा था मुझे
मौलश्री की ओट में छिप
कर दुलारा था मुझे

और वह पल लाज की जब
यवनिकाएँ ढह गईं

घाटियाँ जिनमें तुम्हारी
खिल रहीं किलकारियाँ
हिरनियों के चेहरॉन पर
उग रहीं चूमकारियाँ

कंटकित वे स्पर्श होठों
को दबाकर सह गईं

भूल सब जब सो गया था
मैं तुम्हारी बाँह में
नासमझ लोरी सुनाती
चुनरी की छाँह में

समझदारी के अनल में
स्मृतिलताएँ दह गईं

एक निर्मम लहर आई –
सीपियाँ सब बह गईं