उजियाला पूरा है
या गहरा अँधियारा
कुछ भी तो पता नहीं
पोत लिये आये थे
सागर में
बहुत दूर निकल गये
मुट्ठी में पकड़े
हम सीपी-क्षण
मोती की बस्ती में फिसल गये
घटता यह जल है
या उठता है ज्वार
कुछ भी तो पता नहीं
बाँधते रहे लंगर
पाँव-तले
खिसक रही रेती से
अपनी ही आहट से
डरे हुए
जुड़े रहे घोंघों की खेती से
कितना कुछ दे बैठे
या कितना है उधार
कुछ भी तो पता नहीं