भोर के अन्तिम तारे के आँखे मूँदने से पहले ही
वह ज़िन्दा कर देती है, आँगन में पड़े अलसाए चूल्हे को
अपनी हड्डियों का ईंधन बनाकर, उलीचती है ढेर सारा पसीना
तब धधकती है चूल्हे में आग और ठण्डी हो पाती है
चार नन्हें मासूमों और दो बूढ़ी ठठरियों के पेट की जलन
हमारे सम्पन्न देश के मानचित्र से ओझल
एक फटेहाल गाँव में रहती है सीमा
पति के नाम की बैसाखियाँ कभी नहीं पहनी उसने
नहीं जानती वह सप्तपदी के मन्त्रों का अर्थ
फिर भी परदेश कमाने गए पति की जगह खड़ी है,
बनकर उसके परिवार का आधार
बैल की तरह महाजन के खेत में अपना शरीर जोतती
नहीं जानती थकना, रुकना या रोना
जानती है तो बस चलना, बिना रुके, बस चलते रहना
हर साल, महाजन की रकम चुकाने आया पति
भले ही नहीं कर पाता काबू ब्याज की जानलेवा अमरबेल को
लेकिन कर जाता है अपनी मर्दानगी का सुबूत पक्का
डाल कर उसकी गोद में पीठ से चिपका एक और पेट
तब भी नहीं रुकती सीमा
एक दिन के जाए को सास की गोद में लिटा
वह निकल जाती है, कुछ और रोटियों की तलाश में
तेल–साबुन विहीन, चीथड़ों में लिपटा शरीर, सूखा चेहरा, रूखे केश
सीमा नहीं जानती शृंगार की भाषा
बेमानी है उसके लिए, पेट के अलावा कोई और भूख
लेकिन फिर भी जानती है वह
जब तक गरम गोश्त की महक रहेगी
रात के पिछले पहर बजती रहेगी साँकलें
और वह मुस्कुराएगी छप्पर में खोंसे अपने हँसिये को देखकर
नई रोशनी से दूर, भारी भरकम शब्दों से बने कृत्रिम विमर्शों से दूर
शाम ढले अपने बच्चों को सीने से लिपटाए, तारों की छाँव में
सुकून की नींद सोती है सीमा
क्योंकि उसे नहीं है भ्रम, कल का सवेरा लाएगा कोई बड़ा बदलाव
उसे नहीं है इन्तज़ार, एक दिन वह ले पाएगी मुक्ति की साँस
क्योंकि नहीं है उसे बैचनी, काट दे वह अपने जीवन की बेड़ियाँ
वह नहीं जानती समानता के अर्थ, स्वतन्त्रता के मायने
इस सारी आपा-धापी से परे वह अकेले ही
खींच रही है अपने परिवार की गाड़ी, अपने एक ही पहिए के सहारे
हमारे सम्पन्न देश के एक फटेहाल गाँव में रह रही सीमा
अनजाने में ही रच रही है स्त्री- विमर्श की एक सशक्त परिभाषा
बिना बुलन्द किए कोई भी नारा,
बिना थमाए अपने अधिकारों की फेहरिश्त
किसी और के हाथों में
सीमा, तुम्हें मेरा सलाम
क्या तुम दे सकती हो
हम तथाकथित स्वतन्त्र ,शिक्षित औरतों को
अपनी आधी हिम्मत भी उधार ?