Last modified on 1 अप्रैल 2014, at 15:10

सीमा पार चारपाइयाँ / लीना मल्होत्रा

वो बड़े आँगन वाले घर के बाहर ही छूट गई चारपाईयां
जिन्हें याद कर कर के माँ इतने बरस रोई
याद करती थी वो शहर के क़ाज़ी को रुलाईयों के घूँट पी पी कर
जिसने दंगाइयों के सामने बाजू खोल कह दिया था
उस शहर की पहली लाश वही बनेगा

ज़हर की शीशियों को मुठियों में भींचे
अपने बारह बरस के हाथो में
हज़ारो साल पुरानी अस्मत को बचा ले आई थी वह
उन कटते हुए काफिलों के बीच से
मौत को चकमा देकर.

गर्वीली मुस्कान से बताती थीं जब
तब
एक ठिठका हुआ दुःख आधी सदी से वही बिछी चारपाइयों पर थक कर करवट बदल लेता
जिसकी लहरे समय को साथ बहा लिए चली आती हमारे घर
जिसमे गोते लगाती माँ बताती आगे की कथा
कहा था उन्होंने अपनी माँ से
"ए मंजिया ते अन्दर रख दो" (ये चारपाइयां तो अंदर रख दो)
कांप गये थे नानी के हवेली को ताला लगाते हाथ

कहा था नानी ने
"नी झाल्लिये हुन ऐत्थे थोड़ी आना ए" (पागल! अब यहाँ थोड़ी आयेंगे)
मुठ्ठी भर गई थी माँ के दिल में
पूछती रही थी क्यों लगाया ताला फिर
अनुत्तरित ही रहा वह प्रश्न
चारपाईया टिकी हैं वहीँ जहाँ थी..
रहेंगी वहीँ हमेशा हमेशा
कुछ चीज़े अपनी जगह कभी नही बदलती

सरल प्रश्नों के सरल उत्तरों के भीतर
सदियों तक गूंजते रहे तार सप्तक में दर्द के विकृत स्वर .