हे देव!
दुःख ही दुःख गमकता है
पुराने बासमती भात सरीखा
मेरी देह की कोठरी में।
आत्मा के रोशनदानों से
टपटप अँधेरा ही गिरता है।
शनै शनै आयु का बसंत बीत रहा है।
उधर साँसों की दुर्बोध लिपि
जीवन के पीले कागज़ पर
मांद पड़ती जाती है।
इधर मन पर लगा
सूतक समाप्त होने पर ही नहीं आता।
स्मृति दोहराव की भाषा में लौटती हैं
प्रणय बीत कर मुरझाए हुए
फूलों में बदलता है।
सच है कि
आत्मा के कारावास से कोई मुक्ति नहीं।
उस पर यह खुलना कि
प्रीत का सम्मोहन कितना ही मृदु हो
एक दिन टूट जाता है।
प्रेमी का स्पर्श कितना ही काम्य हो
एक दिन देह उसके स्मरण से मुक्त हो जाती है।
उफ़!
कितनी घनी ऊब से भरे हुए हैं ये दिन
ऐसे में यात्रा की थकान नहीं
गंतव्य की निकटता निराश करती है।
भली प्रकार जानती हूँ
कि सब छल छद्म अंतत नष्ट हो जाते हैं।
कोई जादू सर पर सदा नहीं रहता।
फिर भी चाहती हूँ कि
प्रेम का यह दुःख जीवन पर्यंत बना रहे
भले ही मेरे जीवन में उसका होना
तृष्णाओं का राग भर रहे
भले ही उसका साथ होना
दुःख के भ्रमित बोध सरीखा
सुख का कच्चा पक्का स्वांग भर रहे।