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सुगना मुण्डा / अनुज लुगुन

सुगना मुण्डा

सुगना मुण्डा जंगल का पूर्वज है
और जंगल सुगना मुण्डा का
कभी एक लतर था तो दूसरा पेड़
कभी एक पेड़ था तो दूसरा लतर
यहाँ संघर्ष का सच भी था
और सौन्दर्य का आत्मिक स्पर्श भी
दोनों सहजीवी थे
दोनों के लिए मृत्यु का कारण था
एक दूसरे से विलगाव,

यहाँ हत्यारा कोई नहीं था
जैविक वनस्पतियों में
युद्ध के बीज कहीं नहीं थे
मान्दर और नगाड़े
छऊ जदुर और खेमटा
करम और सरहुल
पेड़ की फुनगियों पर
तीतरों की तीरयानी पर
बच्चों की तोतली बोली की तरह थे
सम्वाद गीत थे
और गीतों की भाषा
गुन्गु की तरह बुनी होती थी
यहाँ बाघ उतना ही अनुशासित था
जितना कि भूख

और यह सब एक दिन
सुगना मुण्डा ने
अपनी प्रियतमा के जूड़े में खोंस दिया था
उसकी प्रियतमा के जूड़े
इतने सुन्दर थे कि
उसकी महक पूरे जंगल में
जड़ों की तरह फैल गई
और उससे उगने लगे वंशबीज
पहले से ज़्यादा उर्वर
पहले से ज़्यादा साहसी
पहले से ज़्यादा चेतना सम्पन्न
हर बार ऐसा होता रहा
हर बार उम्मीद
बसन्त के गीत गाती रही,

कविता के लिपिबद्ध होने से पहले तक
सुगना मुण्डा गीत गाता रहा
उसे अलिखित करार
ज़्यादा सहज और सम्वेदनशील लगता था
अबोले सहमति पर उसकी साख थी
मितभाषी उसका अनुवांशिक गुण था
उसे लिखने से ज़्यादा
अपने साथ खड़े पेड़ों पर विश्वास था
उस पत्थर पर भरोसा था
जिसे वह अपने पुरखों के सम्मान में
क़ब्र पर उनके सिरहाने गाड़ आता था
उसे पृथ्वी पर भरोसा था कि
चेतना और विचार
उसी के उपादानों से आते हैं,

और इसी बीच
कविता के साथ-साथ
इतिहास, दर्शन, विज्ञान और
यहाँ तक कि
रिश्ते भी लिपिबद्ध होने लगे
अब लिखित ही सबकुछ था
लिखित ही प्रामाणिक था,

सुगना मुण्डा के सामने
जो दुनिया बन रही थी
उसमें वही वैध था
वही सभ्य और सांस्कारिक था
और लिखा वही जा रहा था
जो विजेता चाह रहा था
जो विजित थे
वे उनके लेखन के अयोग्य थे
तब सुगना मुण्डा ने जाना कि
पृथ्वी पर चेतना और विचार
हर जगह बिलकुल वैसे नहीं हैं
जैसे कि उसका देश है,

उसने यह भी जाना कि
उसके साथी
उसके सहजीवी
उसकी ज़मीन
उसके जंगल
उसकी नदियाँ
उसकी आज़ादी
उसका सम्मान
सब ख़तरे में हैं

उसे सूअरों ने
शब्दों के जंगल में इतना छकाया
कि वह छापामार बन गया
तब भी उसने गीत ही गाए
उसके गीत अलिखित, आरूढ़
और सौन्दर्य के संघर्षरत प्रतिमान बने,

चूँकि सैकड़ों साल पहले
सुगना मुण्डा ने
हण्डिया बनाने की कला से मुग्ध होकर
अपनी सुगनी के जूड़े में
रक्त-बीज का फूल खोंस दिया था
इसलिए फूल खिलते रहे
कभी बसन्त में, तो कभी बरसात में
यहाँ तक कि पतझड़ में
सबसे ज़्यादा लालायित होते थे
फूल खिलने के लिए
(बारहमासा फूल थे),
फूल के रंग अनगिनत थे
और आचीन्हें भी
(क्योंकि कभी भी
सुगना मुण्डा के फूलों के रंग को
ग्रन्थों और पोथियों में लिखा नहीं गया),

फूल खिलते रहे हैं सृष्टि के आरम्भ से
आरम्भ से ही जीवन के प्रश्न को लेकर
खिलते रहे हैं लाल-लाल रक्त-बीज के फूल
बाहर की दुनिया में अज्ञात थे सुगना के खिले फूल
जो ज्ञात थे वे अर्द्ध-ज्ञात थे वैदिक सदी में
और जितने ज्ञात फूल थे
वे फूल नहीं, उनके इतिहास का उपहास था,

फूल खिलते रहे —
वैदिक ग्रन्थों में खिले,
धर्म ग्रन्थों में खिले,
महाकाव्यों में खिले
ब्राह्मणों में खिले
लेकिन सुगना के लिए इनमें नहीं थी सुगन्ध
कहीं नहीं थे पराग

ऐसे ही फूल खिले थे
आर्यों के आगमन से
कोलम्बस के दम्भ से
वास्कोडिगामा की दुनियादारी से,
फूल खिले 1764 ई. में
1830 ई. में, 1832 ई. में, 1855 ई. में
उलगुलान में, भूमकाल में, मानगढ़ में
हर बार फूल खिलते रहे कि
दुनिया पहले से और ज़्यादा सुन्दर हो
हर बार सुगनी के जूड़े से ही
छीन लिया जाता रहा उसके हिस्से का फूल
उसकी देह से गन्ध और अखड़ा से गीत,

और एक दिन फूल खिला
सुगना मुण्डा के घर में
और लिखने वालों ने लिखा कि —
‘सुगना मुण्डा का बेटा था बिरसा मुण्डा’
लिपिबद्ध करने वालों ने लिपिबद्ध किया कि —
‘बिरसा मुण्डा धरती आबा हैं’
उन्होंने नहीं लिखा कि
‘सुगना मुण्डा की बेटी थी बिरसी’
उन्होंने नहीं बताया कि
‘सुगना मुण्डा की कोई बेटी थी या नहीं’
उन्होंने जानने नहीं दिया कि
‘सुगना मुण्डा की बेटियाँ घूँघट के नीचे
सहम कर नहीं जीती हैं
वे तो फरसे और धनुष के साथ बलिदानी हैं’
उन्होंने नहीं सुनाया कि
‘सुगना मुण्डा अपनी बेटियों को
बेटों से अलग नहीं करता है’
उन्होंने कचहरियों में दर्ज नहीं कराया कि
‘सुगना मुण्डा की बेटियाँ
अपने पिता के घर में उसकी पैतृकता की समान भागीदार हैं’
उन्होंने नहीं सुनाया सुगना मुण्डा का यह गीत कि
‘‘बेटियों के जन्मने से गोहर घर भर उठता है’’
उन्होंने गवाही नहीं दी कि
‘बिरसा मुण्डा के साथ डूम्बारी बुरु में
बड़ी संख्या में सुगना मुण्डा की बेटियों ने कुर्बानी दी
और मृत माँ से चिपक कर दूध पीते बच्चे को देखकर
गोरे कप्तान की पत्नी की आँखों में आँसू आ गए थे’
और यह गीत आज भी मुण्डा गाते हैं

सुगना मुण्डा की सुगनी ने
खिलाए थे फूल
उन फूलों ने अपनी कोमलता से नहीं
अपने रंगों से बाघों को चुनौती दी थी
और यह बात उस डाकिये ने नहीं सुनी
जो सुगना और सुगनी की दुनिया में
अपने पैतृक वंशावली के साथ आया था
और इस तरह अधूरे ही रहे प्रतिमान
उनके विश्लेषण के
पूरी बात यहाँ से नहीं पहुँची
कि बिरसा मुण्डा के साथ बिरसी भी रही है
कि बिरसी और बिरसा ने
सम्मिलित चुनौती दी है आदमख़ोरों को
कि कभी नहीं एक ध्रुवीय रही है उनकी दुनिया,

हमेशा दफ़न किया गया है
जनवादी संघर्ष को
जनता के गीतों को
एक ‘सम्भ्रान्त’, ‘सवर्ण’ और ‘पैतृक’
फ़्रेम रहा है उनके पास अपना
और उसी मानक में कसते रहे हैं
वे सभ्यता की परिभाषा
उसी परिभाषा में, उसी फ़्रेम के अन्दर
जबरन घसीटा गया सुगना मुण्डा के बच्चों को
इतना गहरा और इतना अधिक दार्शनिक प्रलोभन देकर कि
आज वे उनकी भाषा को अपनी भाषा में अनूदित करने लगे हैं
समसत्ता का पितृसत्तात्मक भाष्य ही प्रस्तुत किया जाता रहा है उनके सामने
अनूदित भाषा के व्यवहार का ही प्रचलन किया जा रहा है उनमें,

और तब सुगना मुण्डा की बेटी को
यक़ीन होने लगा कि
चानर-बानर होते हैं
उलट्बग्घा होते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं
कुनुईल होते हैं
जो हमेशा शिकार की खोज में होते हैं
उनके लिए न कोई अपना है
न कोई पराया है
उनका अपना सिर्फ़’ उनकी भौतिक भूख है,

शिकार की खोज में
गलियों में, घाटों में, बाज़ारों में
घूमते हिंसक बाघों को देखकर भी
आज सुगना मुण्डा ने अपनी बेटी से नहीं कहा कि
‘बिरसी! घर में छुप जाओ’
नहीं कहा कि
‘तुम एक लड़की हो’
उसने कहा —
‘बिरसी! आज भी जंगल हमारा पूर्वज है
और हम जंगल के पूर्वज हैं
हमारे पूर्वजों से विच्छेद करा कर
हमारे अस्तित्व की रीढ़ तोड़ी जा रही है
हमें अपने पूर्वजों की सहजीविता से जबरन दूर रख कर
हमारे अन्दर वर्चस्वकारी संस्कार आरोपित किए जा रहे हैं
कि हम एक ही दिखें, एक ही रंग में रंगे
हम भी सभ्यता के भ्रम में करने लगे हैं
बेटियों की पहचान बेटों से अलग’

उसने पहाड़ी के उस पार से उभर कर आती
आकृतियों को देख कर
गहरी साँस छोड़ते हुए चिन्ता के स्वर में कहा — बिरसी!
यह बाघ के हमले की साजिश है
वह समूह पर हमला नहीं कर सकता
इसके लिए वह पहले शिकार को खदेड़ कर अलग-अलग करता है,

यह बाघ का ही हमला है कि
हम बिखर रहे हैं
हम भूल रहे हैं अपनी ही सहजीविता
लैंगिकता के साथ
पितृसत्ता का स्वीकार
हमारे ख़ून में ज़हर भरेगा
और आन्तरिक संरचना में कमज़ोर होकर
मुक्ति की परिकल्पना सम्भव नहीं है

सदियों से बाघ
हमें अपने ख़ूनी पंजों में
जकड़ने की कोशिश करता रहा है
हर बार हमारी सहजीविता ने उसे पराजित किया है
हमारी सहजीविता ही बनाती है
भेदरहित मज़बूत रिश्ते
सत्ता और वर्चस्व
अपने बाघपन से ही जीवित रहती है
आदमी ही बाघ हो जाते हैं
‘चानर-बानर’ होते हैं
‘उलट्बग्घा’ होते हैं
भले ही जंगल ख़त्म हो जाए
भले ही प्राकृत बाघ विलुप्त हो जाएँ,

बिरसी! जंगल के पूर्वज
कभी भी प्राकृत बाघ के दुश्मन नहीं रहे हैं
हम जंगल के पूर्वज रहे हैं
और जंगल हमारा पूर्वज है
जंगल केवल जंगल नहीं है
नहीं है वह केवल दृश्य
वह तो एक दर्शन है
पक्षधर है वह सहजीविता का
दुनिया भर की सत्ताओं का प्रतिपक्ष है वह।’’