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सुनहरी रेत पर शाम / कर्णसिंह चौहान


दिन भर रश्मियों के ताप से
गुनगुनाई
काले सागर की सुनहरी रेत
शरीर को गुदगुदा रही है ।

बिछी स्वर्णिमा
गरजते सागर
और अनंत तक फैले आकाश के
तीन लोकों में
एक साथ उपस्थिति के बाद भी
अव्यक्त सत्ता के सतत बोध के सिवा
कुछ भी नहीं है यहाँ ।

घिरती शाम ने
लील लिए तमाम रुपाकार
खोलीं मन की आंखें
तुम्हें याद आई वह स्मृति
जब
सागर ऐसी ही संध्या में
देह धर
बाँह पकड़
वक्ष में भींचे
अपने भीतर उतार के द्वार
दिखाई
अमूल्य निधियां
अलौकिक लोक
फिर छोड़ गया किनारे ।

मैं जानता हूं
तुम पूरा समय
उसी की याद में खोई थीं
उसी अपरुप रुप में डूबी
अविस्मरणीय संयोग सुख में
सोयी थीं ।

अंधेरे में भी कौंध रही
उसी की खुमारी ।

मैं चीर डालूंगा काले सागर के वक्ष को
अजदहे सा फुंकार
लोगों को पीड़ा में भरमाता है
पास बुला
महारास रचाता है
ये स्वागत में फैली सुनहरी बाहें
यह आकाश का तंबू
बांसुरी की टेर
और चीत्कार
एक छ्ल है, जादू है
मनुष्य को मनुष्य से छीनने का ।

तुम जहन्नुम में जाओ
मैं अपनी दुनिया में लौट जाऊंगा
शराब में झूमते
नाचते ओ’ गाते
आबाद घरोंदों मेंc चला जाऊंगा
नहीं चलता यहां
सागर का जादू
उन्हीं का हो जाऊंगा ।

चांद तक फैल गई है
हंसी
सरसों के खेतों को जगा रही है
हंसी,
वैभव में क्षुद्रता का अहसास
करा रही है हंसी ।

असंभव है
सागर किनारे प्यार
अनुभव की विराटता में तान
छूंछा लौटाता है
आओ विदा लें
इस फरेबी से ।